सिख गुरु गोविंद सिंह जी का कहना था कि ‘धन बहुत बड़ी चीज है, पर आदमी को खाने के लिये बस दो रोटी चाहिए।’
इसका आशय यही है कि भले ही आदमी कितना भी कमा ले पर उसका पेट अन्न के बिना नहीं भर सकता। हम इसका व्यापक तथा गुढ़ भाव देखें तो यह बात समझ में आती है कि खाने के लिये जहां हमें रोटी चाहिए तो प्यास बुझाने के लिये पानी। देह को बचाने के लिये कपड़ा चाहिये और रात गुजारने के लिये छत की आवश्यकता होती है। यह धन से प्राप्त होती हैं पर दैहिक आवश्यकता की पूर्ति वस्तुओं से होती है कि कागज के नोटों से। यह बात लोग नहीं समझते और पैसा कमाने का लक्ष्य रखकर ही चलते जाते हैं और फिर अंततः उनकी देह नष्ट हो जाती है। इस दुनियां के अधिकतर मनुष्य जितना कमाते हैं उतना खर्च नहंी कर पाते। वह ऐसा भौतिक संसार रच जाते हैं जो बाद में दूसरों के काम आता है।
इस विषय पर संत कबीरदास कहते हैं कि
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कबीरा औंधी खोपड़ी, कबहूं धापै नाहिं
तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिं
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की खोपड़ी उल्टी होती है क्योंकि वह कभी भी धन प्राप्ति से थकता नहीं है। वह अपना पूरा जीवन इस आशा में नष्ट कर देता है कि तीनों लोकों की संपदा उसके घर कब आयेगी।
हालांकि लोग धन का पीछा करते हुए थकते नहीं हैं पर एकरसता से जो ऊब पैदा होती है उसको भी नहीं समझ पाते। योगसाधना, ध्यान, और मंत्रजाप उनके लिये फालतु की चीज हैं। कुछ लोग पैसे के कारण भी भक्ति का दिखावा करते हुए बड़े बड़े कार्यक्रम भी करते हैं पर उनका आचरण, व्यवहार और वाणी हमेशा ही उनके अंदर के विकारों से ग्रसित दिखाई देती है। आजकल तो ऐसे लोग भी हो गये हैं जो धर्म का व्यापार इसलिये करते हैं ताकि उनके लिये सुखसुविधा का संग्रह होता रहे। अनेक लोग समाज पर दबदबा बनाये रखने के लिये भगवान की आड़ लेते हैं। ऐसे लोग वैभव, पद और बाहुबल से संपन्न दिखते जरूर हैं पर मानसिक रूप से विकृति को प्राप्त हो जाते हैं।
इस संसार में सुख से रहने का मार्ग अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने से ही सुलभ होता है। यही सोचकर तत्व ज्ञानी जितना मिलता है उसी से संतोष कर लेते हैं। वह न केवल अपना जीवन आनंद से बिताते हैं बल्कि दूसरों को भी सुख देते हैं।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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