तिल भर मछली खायके, कोटि गऊ के दान।
कासी करवट ले मरै, तौ भी नरक निदान।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो तिल भर मछली का मांस सेवन कर भले ही करोड़ों गायें दान करें और काश में जाकर देह का त्याग करें तो भी उनको नरक भी भोगना पड़ेगा। वह अपने पाप से कभी मुक्त नहीं हो सकते।
बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।
जो बकरी खात है, तिनका कौन हवाल।।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश के हिन्दू समाज को संभवतः विश्व में इसलिये ही आधुनिक सभ्यता में सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ क्योंकि समय के साथ अपने वैचारिक आधारों में परिवर्तन करने की क्षमता उसमें है। हमारे कुछ प्राचीन ग्रंथों में मांस खाने को स्वीकृत दी गयी है। संभवतः इसका कारण यह रहा है कि उसमें विभिन्न क्षेत्रों के ऋषियों और मुनियों ने अपना योगदान दिया है और उनमें शायद कुछ उन क्षेत्रों के रहे होंगे जहां उनके समय में वहां सब्जी आदि उत्पादन की तकनीकी विकसित नहीं होगी। जैसे जैसे सभ्यता का विकास हुआ वैसे वैसे खान पान और उत्पादन का स्वरूप बदला लोगों को मांसाहार से दूर होने के लिये कहा गया। कम से कम यह तो लगता है कि श्रीमद्भागवत गीता के काल में यहां पूरी तरह से एक सभ्य समाज निर्मित हो गया था। उसमें मांसाहार को त्याज्य बताया गया है। वैसे मांसाहार से किसी को रोका नहीं जाता पर इतना जरूर समझाया जाता है कि उससे मनुष्य के अंदर ही तामसी प्रवृत्तियों का निर्माण होता है।
मनुष्य तीन प्रवृत्तियों के माने जाते हैं सात्विक, राजसी और तामसी। यहां यह प्रश्न नहीं है कि आप क्या खाते और पीते हैं। आप चाहे भी जिस चीज का सेवन करें पर यह बात याद रखिये उसके अनुसार ही आपके अंदर विचारों और संकल्पों का निर्माण होगा। साथ ही यह भी याद रखिये कि आप जिन लोगों के संपर्क मेें है वह भी अपने खान पान, रहन सहन और चाल चलन के कारण उनसे पैदा होने वाले गुणों के अनुसार काम करते हैं। गुण ही गुणों को बरतते हैं-यह श्रीमद्भागवत गीता का एक वैज्ञानिक सूत्र है। इसका आशय यह है कि आप अगर चाहते हैं कि आपके अंदर सात्विक विचार हमेशा बने रहें तो मांसाहार से दूर रहें। उसी तरह अगर आपके संपर्क में जो लोग शराब तथा मांस का सेवन करते हैं उनके बारे में यह अवश्य सोचें कि उनकी प्रवृत्तियों में कोई दोष हो सकता है इसलिये उनसे सावधान रहें या फिर संकट पड़ने पर उनसे सहायता की आशा न ही करें तो अच्छा। आप किसी से यह न कहें कि मांस या शराब का सेवन न करे क्योंकि बिना मांगे उपदेश देना अहंकार भाव का प्रमाण है जिससे ज्ञानी को दूर रहना चाहिये अलबत्ता इस बात को याद रखें कि अपने व्यसनों जीभ के स्वाद के दास भल कहां आपके काम आ सकेंगे।
कुछ जगह मंदिरों में अभी भी बलि प्रथा चल रही है। अब उनको बंद कर देना चाहिये क्योंकि यह तब की हैं जब शुद्ध खाद्य पदार्थ उपलब्ध नहीं थे। वैसे अपने देश में अनेक मंदिर अब इस प्रथा से दूर हो गये हैं। हमारे समाज में इस बात की गुंजायश हमेशा रही है कि यहां विद्वान और संत आकर समय के अनुसार अपना ज्ञान प्रस्तुत कर वैचारिक आधार पर बदलाव लाते हैं-जैसे अपने देश में श्रीगुरुनानक देव, कबीर और तुलसीदास का नाम लिया जाता है। इसके विपरीत अन्य समाजों में केवल पुरानी किताबों पर ही चिपके रहकर लोग रूढ़िवादी हो जाते हैं। यही कारण है कि अन्य समाजों में अभी भी मांसाहार को अनुचित नहीं माना जाता जबकि वास्तविकता यह है कि आदमी के दिलोदिमाग पर आहार के प्रकार का प्रभाव अवश्य पड़ता है। दूसरा यह है कि आप मांसाहार कर चाहे कितना भी दान करें बेकार है दूसरा यह है कि जब उसके प्रभाव से विचार और मन कलुषित होंगे तो शुद्ध हृदय से भक्ति भी नहीं हो पाती।
लेखक, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorकासी करवट ले मरै, तौ भी नरक निदान।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो तिल भर मछली का मांस सेवन कर भले ही करोड़ों गायें दान करें और काश में जाकर देह का त्याग करें तो भी उनको नरक भी भोगना पड़ेगा। वह अपने पाप से कभी मुक्त नहीं हो सकते।
बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।
जो बकरी खात है, तिनका कौन हवाल।।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश के हिन्दू समाज को संभवतः विश्व में इसलिये ही आधुनिक सभ्यता में सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ क्योंकि समय के साथ अपने वैचारिक आधारों में परिवर्तन करने की क्षमता उसमें है। हमारे कुछ प्राचीन ग्रंथों में मांस खाने को स्वीकृत दी गयी है। संभवतः इसका कारण यह रहा है कि उसमें विभिन्न क्षेत्रों के ऋषियों और मुनियों ने अपना योगदान दिया है और उनमें शायद कुछ उन क्षेत्रों के रहे होंगे जहां उनके समय में वहां सब्जी आदि उत्पादन की तकनीकी विकसित नहीं होगी। जैसे जैसे सभ्यता का विकास हुआ वैसे वैसे खान पान और उत्पादन का स्वरूप बदला लोगों को मांसाहार से दूर होने के लिये कहा गया। कम से कम यह तो लगता है कि श्रीमद्भागवत गीता के काल में यहां पूरी तरह से एक सभ्य समाज निर्मित हो गया था। उसमें मांसाहार को त्याज्य बताया गया है। वैसे मांसाहार से किसी को रोका नहीं जाता पर इतना जरूर समझाया जाता है कि उससे मनुष्य के अंदर ही तामसी प्रवृत्तियों का निर्माण होता है।
मनुष्य तीन प्रवृत्तियों के माने जाते हैं सात्विक, राजसी और तामसी। यहां यह प्रश्न नहीं है कि आप क्या खाते और पीते हैं। आप चाहे भी जिस चीज का सेवन करें पर यह बात याद रखिये उसके अनुसार ही आपके अंदर विचारों और संकल्पों का निर्माण होगा। साथ ही यह भी याद रखिये कि आप जिन लोगों के संपर्क मेें है वह भी अपने खान पान, रहन सहन और चाल चलन के कारण उनसे पैदा होने वाले गुणों के अनुसार काम करते हैं। गुण ही गुणों को बरतते हैं-यह श्रीमद्भागवत गीता का एक वैज्ञानिक सूत्र है। इसका आशय यह है कि आप अगर चाहते हैं कि आपके अंदर सात्विक विचार हमेशा बने रहें तो मांसाहार से दूर रहें। उसी तरह अगर आपके संपर्क में जो लोग शराब तथा मांस का सेवन करते हैं उनके बारे में यह अवश्य सोचें कि उनकी प्रवृत्तियों में कोई दोष हो सकता है इसलिये उनसे सावधान रहें या फिर संकट पड़ने पर उनसे सहायता की आशा न ही करें तो अच्छा। आप किसी से यह न कहें कि मांस या शराब का सेवन न करे क्योंकि बिना मांगे उपदेश देना अहंकार भाव का प्रमाण है जिससे ज्ञानी को दूर रहना चाहिये अलबत्ता इस बात को याद रखें कि अपने व्यसनों जीभ के स्वाद के दास भल कहां आपके काम आ सकेंगे।
कुछ जगह मंदिरों में अभी भी बलि प्रथा चल रही है। अब उनको बंद कर देना चाहिये क्योंकि यह तब की हैं जब शुद्ध खाद्य पदार्थ उपलब्ध नहीं थे। वैसे अपने देश में अनेक मंदिर अब इस प्रथा से दूर हो गये हैं। हमारे समाज में इस बात की गुंजायश हमेशा रही है कि यहां विद्वान और संत आकर समय के अनुसार अपना ज्ञान प्रस्तुत कर वैचारिक आधार पर बदलाव लाते हैं-जैसे अपने देश में श्रीगुरुनानक देव, कबीर और तुलसीदास का नाम लिया जाता है। इसके विपरीत अन्य समाजों में केवल पुरानी किताबों पर ही चिपके रहकर लोग रूढ़िवादी हो जाते हैं। यही कारण है कि अन्य समाजों में अभी भी मांसाहार को अनुचित नहीं माना जाता जबकि वास्तविकता यह है कि आदमी के दिलोदिमाग पर आहार के प्रकार का प्रभाव अवश्य पड़ता है। दूसरा यह है कि आप मांसाहार कर चाहे कितना भी दान करें बेकार है दूसरा यह है कि जब उसके प्रभाव से विचार और मन कलुषित होंगे तो शुद्ध हृदय से भक्ति भी नहीं हो पाती।
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