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Saturday, May 29, 2010

संत कबीर के दोहे-मनुष्य माया रूपी दीपक के इर्द गिर पतंगे कि तरह चक्कर काटता है

संत कबीरदास जी के अनुसार
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माया दीपक नर पतंग, भ्रमि भ्रमि इवैं पड़ंत
कह कबीर गुरु ग्यान तैं, एक आध उमरन्त

इसका आशय यह है कि मनुष्य एक पंतगे की तरह माया रूपी दीपक के प्रति आकर्षण में भ्रमित रहता है। वह अपना जीवन उसी के इर्द गिर्द चक्कर काटते हुए नष्ट कर देता है। कोई एकाध मनुष्य ही है जिसे योग्य गुरु का सानिध्य मिलता है और वह इस माया के भ्रम से बच पाता है।
गयान प्रकास्या गुरु मिल्या, से जिनि बीसरि जाई
जब गोबिन्द कृपा करी, तब गुरु मिलिया आई

इसका आशय यह है कि जब सच्चे गुरु का सानिध्य मिलता है तो हृदय में ज्ञान का प्रकाश फैल जाता है। ऐसे गुरु को कभी नहीं भूलना चाहिये। जब भगवान की कृपा होती है तभी सच्चे गुरु मिल पाते हैं।
वर्तमान समय में संपादकीय व्याख्या-यह सब जानते हैं कि यह देह और संसार एक मिथ्या है। खासतौर से अपने देश में तो हर आदमी एक दार्शनिक है। हमारे महापुरुषों ने अपनी तपस्या से तत्व ज्ञान के रहस्य को जानकर उससे सभी को अवगत करा दिया है।
इसके बावजूद हम लोग सर्वाधिक अनेक पारकर के भ्रमों का शिकार हो जाते हैं। आज पूरा विश्व भारतीय बाजार की तरफ देख रहा है क्योंकि उससे अपने उत्पाद यहीं बिकने की संभावना दिखती है। अनेक तरह के जीवन की विलासिता से जुड़े साधनों के साथ लोग सुरक्षा की खातिर हथियारों के संग्रह में भी लगे हैं। एक से बढ़कर एक चलने के लिये वाहन चाहिये तो साथ ही अपनी सुरक्षा के लिये रिवाल्वर भी चाहिये। इतना बड़ा भ्रमित लोग शायद ही किसी अन्य देश में हों।
विश्व में भारत को अध्यात्म गुरु माना जाता है पर जैसे जैसे लोगों के पास धन की मात्रा बढ़ रही है वैसे उनकी मति भी भ्रष्ट हो रही है। कार आ गयी तो शराब पीकर उसका मजा उठाते हुए कितने लोगों ने सड़क पर मौत बिछा दी। कितने लोगों ने कर्जे में डूबकर अपनी जान दे दी। प्रतिदिन ऐसी घटनाओं का बढ़ना इस बात का प्रमाण है कि माया का भ्रमजाल बढ़ रहा है। धन, पद या शारीरिक शक्ति के अंधे घोड़े पर सवार लोग दौड़े जा रहे हैं। किसी से बात शुरू करो तो वह मोबाइल या गाडि़यों के माडलों पर ही बात करता है। कहीं सत्संग में जाओ तो वहां भी लोग मोबाइल से चिपके हुए है। इस मायाजाल से लोगों की मुक्ति कैसे संभव हैं क्योंकि उनके गुरु भी ऐसे ही हैं।
सच तो यह है कि भक्ति के बिना जीवन में मस्ती नहीं हो सकती। भौतिक साधनों का उपयोग बुरी बात नहीं है पर उनको अपने जीवन का आधार मानना मूर्खता है। एक समय ऐसा आता है जब उनके प्रति विरक्ति का भाव आता है तब कहीं अन्यत्र मन नहीं लग पाता। ऐसे में अगर भजन और भक्ति का अभ्यास न हो तो फिर तनाव बढ़ जाता है। यहां यह बात याद रखने लायक है कि भक्ति और भजन का अभ्यास युवावस्था में नहीं हुआ तो बुढ़ापे में तो बिल्कुल नहीं होता। उस समय लोग जबरन दिल लगाने का प्रयास करते हैं पर लगता नहीं हैं। इसलिये युवावस्था से अपने अंदर भक्ति के बीज अंकुरित कर लेना चाहिये। अगर योग्य गुरु न मिले तो स्वाध्याय भी इसमें सहायक होता है। स्वाध्याय से ही जीवन का तत्वज्ञान भी समझा जा सकता है।
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संकलक लेखक  एवं संपादक-दीपक भारतदीप
http://teradipak.blogspot.com

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Sunday, May 16, 2010

रहीम सन्देश-सच्चे परमार्थी कभी भेदभाव नहीं करते (sachche parmarthi-rahim ke dohe)

कविवर रहीम कहते हैं कि
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रहिमन पर उपकार के, करत न यारी बीच
मांस दियो शिवि भूप ने, दीन्हो हाड़ दधीच
 
जिस मनुष्य को  परोपकार का काम  करना है वह जरा भी नहीं हिचकता। दूसरों के  परोपकार करते हुए उच्च कोटि कि मनुष्य कभी भी  यारी दोस्ती का विचार नहीं करते। राजा शिवि ने ने प्रसन्न मुद्रा में अपने शरीर का मांस काट कर दिया तो महर्षि दधीचि ने अपने शरीर की हड्डियां दान में दीं। 
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-आजकल दुनियां में  जन कल्याण व्यापार और राजनीति का विषय हो गया  है।  निजी रूप से दान और परमार्थ करने कि प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया जाता है।  जन कल्याण कि लिए संस्थाएं बन ली गयी हैं जिसका नेतृत्व पैसे, प्रसिद्धि और पद की दृष्टि से बड़े लोग करते हैं।  इनकी आड़ में   विश्व का हर बड़ा आदमी परोपकार करने का दावा करता है पर फिर भी किसी का कार्य सिद्ध नहीं होता। अभिनेता, कलाकार, संत, साहुकार तथा अन्य प्रसिद्ध लोग अनेक तरह के परोपकार के दावों के विज्ञापन करते हैं पर उनका अर्थ केवल आत्मप्रचार करना होता है। आजकल गरीबों, अपंगों,बच्चों,बीमारों और वृद्धों की सेवा करने का नारा सभी जगह सुनाई देता है और इसके लिये चंदा एकत्रित करने वाली ढेर सारी संस्थायें बन गयी हैं पर उनके पदाधिकारी अपने कर्मों के कारण संदेह के घेरे में रहते हैं। टीवी चैनल वाले अनेक कार्यक्रम कथित कल्याण के लिये करते हैं और अखबार भी तमाम तरह के विज्ञापन छापते हैं पर जमीन की सच्चाई यह है कि जो परोपकार भी एक तरह से ऐसा  व्यापार हो गया है जिसमें कमाई अधिक और खर्चा अधिक है और इसके माध्यम से प्रचार और आय अर्जित करने की योजनाओं को पूरा किया  जाता है। स्थिति यह है कि फिल्म, खेल और अन्य मनोरंजक कार्यक्रमों के  कार्यकर्मों के लिए करों में छूट मांगी जाती है।
इसके विपरीत जिन लोगों को परोपकार करना है वह किसी की परवाह नहीं करते। न तो वह प्रचार करते हैं और न ही इसमें अपने पराये का भेद करते हैं। उनके लिये परोपकार करना एक नशे की तरह होता है। सच तो यह है कि यह मानव जाति अगर आज भी चैन की सांस ले रही है तो वह ऐसे लोगों की वजह से ले रही हैं।   ऐसे लोग न केवल बेसहारा की मदद करते हैं बल्कि पर्यावरण और शिक्षा के लिये भी निरंतर प्रयत्नशील होते हैं। वरना तो जिनके पास पद, पैसे और प्रतिष्ठा की शक्ति है वह इस धरती पर मौजूद समस्त साधनों का दोहन करते हैं पर परोपकारी लोग निष्काम भाव से उन्हीं संसाधनों में श्रीवृद्धि करते है। जिनका परोपकार करने का संकल्प लेना है उन्हें यह तय कर लेना चाहिए कि वह प्रचार और पाखंड से दूर रहेंगे। 
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
http://zeedipak.blogspot.com

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