जीव हनेँ हिंसा करेँ, प्रगट पाप सिर होय
पाप सबन जो देखिया, पुन्न न देखा कोय
संत शिरोमणि कबीरदास जे कहते हैं कि जो जीव को मारता है उसके पाप का भार प्रत्यक्ष रुप से उसके सिर पर दिखाई देता है पर उनके जो पुण्य कर्म हैं वह किसी को दिखाई नहीं देते क्योंकि हिंसा करने वाले पापी होते हैं और उन्हें किसी भी तरह पुण्यात्मा नहीं माना जा सकता।
वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीव हिंसा करना अनुचित है। जिस जीव की ह्त्या होती हैं उसकी आत्मा रोटी है और उससे निकलने वाली बददुआ से कोई नहीं बच सकता। सच बात तो यह है कि आदमी कितना भी धर्म में लिप्त क्यों न हो अगर दूसरे की ह्त्या करता है तो उसका सारा पुण्य व्यर्थ चला जाता है। यह हिंसा न केवल शारीरिक होती है बल्कि मानसिक रूप से भी किसी को त्रस्त करना भी एक बहुत बडी हिंसा है। अपने वाक्यों से दूसरे को कष्ट पहुंचाना भी पाप है।
आम तौर से मांस का सेवन करने वाले यह समझते हैं कि वह प्रत्यक्ष रूप से किसी की ह्त्या में दोषी नहीं है इसलिए उन पर कोई पाप नहीं लगता-यह उनका भ्रम है क्योंकि जिस जीवात्मा ने अपना शरीर खोया है उसका रंज उसके मांस के साथ ही चलता है और जो उसका सेवन करते हैं उनको भी उसका भागी होना पड़ता है।
-----------------वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीव हिंसा करना अनुचित है। जिस जीव की ह्त्या होती हैं उसकी आत्मा रोटी है और उससे निकलने वाली बददुआ से कोई नहीं बच सकता। सच बात तो यह है कि आदमी कितना भी धर्म में लिप्त क्यों न हो अगर दूसरे की ह्त्या करता है तो उसका सारा पुण्य व्यर्थ चला जाता है। यह हिंसा न केवल शारीरिक होती है बल्कि मानसिक रूप से भी किसी को त्रस्त करना भी एक बहुत बडी हिंसा है। अपने वाक्यों से दूसरे को कष्ट पहुंचाना भी पाप है।
आम तौर से मांस का सेवन करने वाले यह समझते हैं कि वह प्रत्यक्ष रूप से किसी की ह्त्या में दोषी नहीं है इसलिए उन पर कोई पाप नहीं लगता-यह उनका भ्रम है क्योंकि जिस जीवात्मा ने अपना शरीर खोया है उसका रंज उसके मांस के साथ ही चलता है और जो उसका सेवन करते हैं उनको भी उसका भागी होना पड़ता है।
लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com
-------------------------------
No comments:
Post a Comment