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लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर
Wednesday, October 21, 2009
संत कबीर वाणी-चतुराई सीखने से भी क्या लाभ? (sant kabir vani in hindi)
चतुराई क्या कीजिये, जो नहिं शब्द समाय
कोटिक गुन सूवा पढै, अंत बिलाई खाय
संत शिरोमणि कबीर दासजी कहते हैं कि उस चतुरता से क्या लाभ? जब सतगुरु के ज्ञान-उपदेश के निर्णय और शब्द भी हृदय में नहीं समाते और उस प्रवचन का भी फिर क्या लाभ हुआ। जैसे करोड़ों गुणों की बातें तोता सीखता-पढता है, परंतु अवसर आने पर उसे बिल्ली खा जाती है। इसी प्रकार सदगुरु के शब्द वुनते हुए भी अज्ञानी जन यूँ ही मर जाते हैं।
पाँव पुजावेँ बैठि के, भखै मांस मद दोय
तिनकी दीच्छा मुक्ति नहिं, कोटि नरक फल होय
संत शिरोमणि कबीर दासजी कहते हैं कि जो साधू-संत खाली बैठकर अपने पाँव पुजवाते हैं और मांस-मदिरा दोनों का सेवन करते हैं उनकी दीक्षा से कभी किसी की मुक्ति नहीं हो सकती, उल्टे करोड़ों नरकों का भीषण कष्टप्रद फल भोगना पड़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आज की वर्तमान शिक्षा पद्धति को देखें तो संत कबीरदास जी बात आज भी प्रासंगिक दिखाई देती है। देखिये कितनी सारी उपाधियां लोग प्राप्त करते हैं। उनके नाम के आगे उनकी उपाधियों की चमक तभी लगती है जब वह किसी बड़े पद पर पहुंचे अन्यथा तो आदमीं कहीं का नहीं रहता बल्कि बेरोजगार होकर घूमता है और परिश्रम का काम वह कर नहीं सकता। इसके अलावा जो लोग शिखर पर पहुंच रहे हैं वह भी तो कर तो नौकरी ही रहे हैं जिसे एक प्रकार की गुलामी कहा जा सकता है। सच तो यह है कि स्वतंत्र सोच अब हमारे देश में मिलना दूभर हो गया है और ऐसा लगता है कि लोग अपने ऊपर थोपे गये विचारों को ही आगे बढ़ाते हैं। आदमी पढ़ लिखकर कितना भी बढ़ा हो जाये बनता उसे शक्तिशाली वर्ग अपना गुलाम बना लेता है।
हमारे देश का अध्यात्मिक ज्ञान आकर्षक है और उसका ज्ञान अब सामान्य छात्र को नहीं दिया जाता है जिस कारण उन गुरुओं की बन आती है जो उसको पढ़ते हैं और फिर लोगों को सुनाकर उसका लाभ उठाते हैं। उनके पास ऐसा कोई ज्ञान नहीं है जिसे सामान्य लोग नहीं जानते पर चूंकि वह दिनचर्या का भाग नहीं है इसलिये कभी कभार सुनने पर उनको जो आनंद मिलता है उसका ही अनेक गुरु लाभ उठाते हैं। वह अपनी सेवा अपने भक्तों से कराते हैं या किसी भले काम के नाम पर चंदा लेकर अपना धंधा चलाते हैं। ऐसे लोगों की आजकल संख्या बहुत अधिक है।
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लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर
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