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हिंदी मित्र पत्रिका

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Friday, September 20, 2013

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-शत्रुओं को हराने वाला राजा ही स्थिर शासन से सकता है (shatruon ko harane wala rajaa hee sthir shasan se kata hai-kuatilya ka arthashatra or economic of kautilya)



      भारतीय अध्यात्म दर्शन  में न केवल प्रथ्वी के जीवन रहस्य को वर्णन किया गया है कि वरन् उसमें सांसरिक विषयों से पूर्ण सामर्थ्य के साथ ही लिप्त रहने के लिये पठनीय सामग्री भी शामिल है। भारतीय दर्शन मनुष्यों में जाति या भाषा के आधार पर भेद करने की बजाय स्वभाव, कर्म तथा प्रकृति की दृष्टि से उनमें प्रथकता का ज्ञान कराता है। भारतीय अध्यात्म दर्शन यह दावा कभी नहीं  करता कि उसके अध्ययन से सभी मनुष्य देवता हो जायेंगे बल्कि वह इस सत्य की पुष्टि करता है कि मनुष्यों में आसुरी और दैवीय प्रकृतियां वैचारिक  रूप में हमेशा मौजूद रहेगी।  इसके विपरीत भारत के बाहर से आयातित विचारधारायें सभी मनुष्य को फरिश्ता बनाने के दावे का स्वप्न मनुष्य मन में प्रवाहित कर उसे भ्रमित करती हैं।  हमारे देश में राजा की परंपरा समाप्त हो गयी तो उसकी जगह विदेशों से आयातित लोकतांत्रिक व्यवस्था की विचाराधाराओं ने यहां जड़े जमायीं।  हैरानी की बात है कि देश की प्रबंधकीय व्यवस्था का स्तर इतना गिर गया है कि लोग आज राजाओं के साथ ही अंग्रेजों की राज्य व्यवस्था को  याद करते हैं।   तय बात है कि आज के राजनीतिक प्रबंधकों से उनके मन में भारी निराशा व्याप्त है।  इसी निराशा का लाभ शत्रु राष्ट्र उठाकर सीमा पर नित्त नये खतरे पैदा कर रहे हैं।
       दरअसल आधुनिक लोकतंत्र में चुनाव जीत कर ही कोई शासन प्राप्त कर सकता है।  यह भी पांच वर्ष की सीमित अवधि के लिये मिलता है।  फिर चुनाव जीतने के लिये भारी प्रचार का व्यय करने के साथ ही कार्यकर्ताओं को भी पैसा देना पड़ता है। परिणाम यह हुआ है कि भले ही लोग समाज सेवा के लिये चुनावी राजनीति करने का दावा करते हों पर उनके कार्य करने की शैली उनके व्यवसायिक रूप का अनुभव कराती है। स्थिति यह है कि कानून में निर्धारित  राशि से कई गुना खर्च चुनाव जीतने के लिये उम्मीदवार करते हैं।  चुनाव जीतन के बाद राजकीय पद पर बैठने पर भी उनकी व्यक्तिगत चिंतायें कम नहीं होतीं। कहा भी जाता है कि जिसे राजनीति का चस्का लग जाये तो फिर आदमी उसे छोड़ नहीं सकता। तात्कालिक रूप से अपना पद बचाये रखने के साथ ही  अगली बार चुनाव  जीतने का सोच चुनावी राजनीति में सक्रिय लोगों को परेशान किये रहता है। जहां तक प्रजा के लिये व्यवस्था के प्रबंध का प्रश्न है तो वह अंग्रेजों की बनायी लकीर पर फकीर की तरह चल ही रही है।  भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अपने कौशल के अनुसार राज्य चलाते हैं।  वह अपने सिर पर बैठे चुनावी राजनीति से आये शिखर पुरुषों को भी संचालित करते हैं।  राजनीतिक पदों पर बैठे लोगों को राजाओं जैसी सुविधा मिलती है तो वह प्रशासन तथा प्रबंधकीय स्थानों पर बैठे लोगों की कार्यप्रणाली पर अधिक दृष्टिपात नहीं करते। दिखाने के लिये भले ही वैचारिक द्वंद्व प्रचार माध्यमों में होता है पर मूल व्यवस्था में कभी कोई बदलाव नहीं होता।
    जहां तक राजनीति का प्रश्न है तो उच्च पदों पर पहुंचे लोगों की चाल भी आम आदमी की तरह ही होती है।  जिस तरह आम आदमी अपने राजसी कर्मों के निष्पादन के लिये चिंतित रहता है उसी तरह चुनाव राजनीति में भी केवल चुनाव जीतना ही मुख्य लक्ष्य रह जाता है। चुनाव जीतने के बाद पद मिलते ही अनेक लोग यह भूल जाते हैं कि निज जीवन और सार्वजनिक जीवन की राजनीति में अंतर होता है। राजनीति तो हर आदमी करता है पर सार्वजनिक जीवन की राजनीति करने वालों का समाज में मुख्य दर्जा प्राप्त होता है। प्रजा के धन से ही उनको अनेक सुविधायें मिलती हैं। वह समाज के प्रेरक और आदर्श होते हैं। यह अलग बात है कि चुनावी राजनीति में सक्रिय बहुत कम लोग अपनी सकारात्मक छवि समाज में बना पाते हैं।  राज्य के अंदर की व्यवस्था तो प्रशासकीय अधिकारी करते हैं पर सीमा के प्रश्न पर उनका नजरिया हमेशा ही अस्पष्ट रहता है। इसका मुख्य कारण यह है कि बाह्य विषयों पर  चुनावी राजनीति से पद प्राप्त व्यक्ति ही निर्णायक होता हैै।  ऐसे में जिस देश में राजनेता और प्रशासन में वैचारिक  अंतद्वंद्व हो वह बाहरी संकटों से कठिनाई अनुभव करते हैं।  दूसरी बात यह कि लोकतांत्रिक नेता सैन्य नीतियों पर कोई अधिक राय नहीं रख पाते।  खासतौर से जहां शत्रु राष्ट्र को दंडित करने का प्रश्न है तो लोकतांत्रिक देश के नेता अपनी झिझक दिखाते हैं। युद्ध उनके लिये अप्रिय विषय हो जाता है।  हम पूरे विश्व में जो आतंकवाद का रूप देख रहे हैं वह कहीं न कहीं लोकतांत्रिक नेताओं में युद्ध के प्रति अरुचि का परिणाम है।     
कौटिल्य महाराज अपने अर्थशास्त्र में कहते हैं कि

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अरयोऽपि हि मित्रत्वं यान्ति दण्डोवतो ध्रुवम्।

दण्डप्रायो हि नृपतिर्भुनक्तयाक्रम्य मेदिनीम्।।

          हिन्दी में भावार्थ-दण्डग्रहण करने वाले के शत्रु भी मित्र हो जाते हैं। दण्ड धारण करने वाला राजा या राज्य प्रमुख आक्रमण कर इस धरती पर सुख भोग सकता है।

सस्तम्भयति मित्राणि ह्यभित्र नाशयत्यपि।

भूकोषदण्डैर्वृजति प्राणश्वाप्युपकारिताम्।।

       हिन्दी में भावार्थ-अपने मित्रों को स्थिर रखने के साथ ही शत्रुओं को मारने वाले, प्रथ्वी, कोष और दण्डधारक राजा या राज्य प्रमुख की दूसरे लोग अपने प्राण दाव पर लगाकर रक्षा करते हैं।

     परिवार की हो या देश की राजनीति, वही मनुष्य अपने आपको सफल प्रमाणित कर सकता है जो अपने मित्र की रक्षा तथा शत्रु का नाश करने का सामर्थ्य रखता है। मुख्य बात यह है कि जिस तरह पुरुष अपने परिवार की रक्षा के लिये अपने अंदर आक्रामक प्रवृत्ति बनाये रखता है उसी तरह उसे राज्य की रक्षा के लिये भी तत्पर रहना चाहिये।  राज्य प्रमुख चाहे सैन्य क्षमता से सत्ता प्राप्त करे या चुनाव से, राज्य करने के नियम बदल नहीं सकते। भारत में इस समय चारों  तरफ से सीमा पर खतरा व्याप्त है और हम शांतिपूर्ण राष्ट्र होने की दुहाई देते हुए उनसे बचने का मार्ग ढूंढते हैं तो कहंी न कहीं हमारे राजनीति कौशल के अभाव का ज्ञान उससे होता है। जब हमारे पास अपनी एक शक्तिशाली सेना है तब हमें अहिंसा या शांति की बात कम से कम अपनी सुरक्षा को लेकर करना ही नहीं चाहिये। शांति या अहिंसा की बात करना सार्वजनिक जीवन के राजनयिकों का नहीं है वरन यह सामाजिक तथा धार्मिक शीर्ष पुरुषों पर छोड़ देना चाहिये कि वह समाज को ऐसे संदेश दें।  राजकीय विषयों का निष्पादन हमेशा ही मानसिक दृढ़ता से होता है। वहां सभी को साथ लेकर चलने की नीति की बजाय सभी को साधने की नीति अपनानी चाहिये। कम से कम कौटिल्य का अर्थशास्त्र तो यही कहता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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Monday, August 5, 2013

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अपनी कमाई के लिए सदैव शुद्ध साधन चुने (kamaae ke liye haemshaa shuddh sadhan chune)

            माया का खेल निराला है।  सत्य और माया दोनों के संयोग से यह संसार चलता है। भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में कहा है कि यह संसार परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित है।  समस्त भूत उसके संकल्प के आधार पर निर्मित है पर वह स्वयं किसी में नहीं है।  माया का सिद्धांत इससे अलग है।  वह स्वयं कोई पदार्थ नहीं बनाती है।  वह सभी में स्थित भी दिखती है पर किसी भी भूत को प्राणवान नहीं बनाती।   धन, सोना, हीरा, जवाहरात तथा वस्तु विनिमय के लिये निर्मित सभी  पदार्थ माया की पहचान कराते हैं पर उनमें प्राणवायु  प्रवाहित नहीं होती है।  इसके बावजूद मनुष्य उसी के पीछे भागता है। इस संसार में  पेड़, पौद्ये, नदियां, झीलें तथा फूलों में सौंदर्य और सुगंध है पर उसकी बनिस्बत मनुष्य माया के प्राणहीन स्वरूप पर ही फिदा रहता है।
        अब तो विश्व में स्थिति यह हो गयी है कि नैतिकता, धर्म तथा सद्भाव की बात सभी करते हैं पर उसे कोई समझता ही नहीं। सभी का उद्देश्य केवल धन प्राप्त करना है।  मन में क्लेश होता है तो हो जाये। शहर में बदनामी होती है तो होने दो पर किसी तरह पैसा आना चाहिये, इस प्रवृत्ति ने मनुष्य को पाखंडी बना दिया हैं।  पूरे विश्व में धर्म के नाम पर बड़े बड़े संगठन बन गये हैं।  धर्म का प्रचार करने के लिये अनेक संगठन ढेर सारा पैसा खर्च करते हैं। अनेक जगह तो पैसा तथा अन्य लोभ देकर धर्मातंरण तक कराया जाता है।  सीधी बात कहें तो धर्म आचरण से अधिक राजनीति तर्थ आर्थिक प्रभाव बढ़ाने वाला साधन बन गया है।  सद्भाव से कर्म करने वाले को धन सामान्य मात्रा में मिलता है जबकि क्लेश करने और कराने वालों को भारी आय होती है।  आजकल स्थिति तो यह हो गयी है कि शराब, तंबाकू तथा अन्य व्यसनों में संलग्न रहने वालों को ढेर सारी कमाई होती है।  इसके अलावा मनोरंजन के नाम पर शोर, भय तथा तनाव बेचने वाले भी महानायकत्व प्राप्त करते हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि आजकल धन की प्राप्ति क्लेश से ही होने लगी है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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तदकस्मत्समाविष्ट कोपेनातिबलीयसा।
नित्यमात्महिताङक्षी न कुर्ष्यादर्थदूषणमुच्यते।।
          हिन्दी में भावार्थ-अचानक क्रोध आ जाने पर अपने हित की पूर्ति के लिये अर्थ का दूषण न करें। इससे सावधान रहें।
दूष्यस्याद्भष्णार्थञ्च परित्यागो महीयसः।
अर्थस्य नीतितत्वज्ञेरर्थदूषणमुच्यते।।

        हिन्दी में भावार्थ-दूषित कर्म तथा अर्थ का अवश्य त्याग करना चाहिये। नीति के ज्ञाताओं ने अर्थ की हानि को ही अर्थ दूषण बताया है।
         दूषित धन का प्रभाव बढ़ने से समाज का वातावरण दूषित हो गया है।  इससे बचने का कोई उपाय फिलहाल तो नहीं है।  कहा जाता है कि संतोष सदा सुखी पर जब पर्दे पर महानायकत्व प्राप्त कर चुके  लोग संतुष्ट न बनो और अपनी प्यास बढ़ाओ जैसे जुमले सुनाकर समाज की नयी पीढ़ी का मार्गदर्शन कर रहे हों तब यह संभव नहीं है कि समाज को उचित मार्ग पर ले जाया जाये। फिर भी जिनकी अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि है उन्हें यह समझना चाहिये कि संसार में क्लेश से प्राप्त धन कभी सुख नहीं दे सकता। इसलिये  अपनी रोजी रोटी के साधनों के रूप में सदैव सात्विक स्थानों पर जाने के साथ ही अपनी भावना भी शु0 रखना चाहिये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, July 27, 2013

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अमीर को गरीब से गुणों की होड़ नहीं करना चाहिए (economics of kautilya-amir ko garib se gunon ki hod nahin karana chahiye)


         मनुष्य में यह प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से दूसरों के साथ होड़ करने की प्रवृत्त् िहोती है। यही उसके दुःख का मूल कारण भी है।  सच बात तो यह है कि आज कोई भी सुखी नहीं है।  इसका कारण यह कतई नहीं है कि माया की कृपा का लोगों के  पास अभाव है वरन् वह दूसरों पर भी कृपा करती है इसको लेकर सभी लोग परेशान रहते हैं।  सभी लोग:तेरी कमीज  मेरी कमीज से सफेद कैसेकी तर्ज पर जीवन पथ पर चलते हुए चिंतायें पाल रहे हैं।  अनेक लोगों के पास बहुत सारी भौतिक सुविधायें हैं इससे उनको सुख नहीं मिलता बल्कि दूसरे के पास भी वैसे ही साधन हैं यह चीज सभी को परेशान करती है।
           उससे भी बड़ी समस्या यह है कि आधुनिक समय में ढेर सारे सुख सभी के पास हैं। कोई किसी से कम नहंी है इसलिये एक दूसरे की प्रशंसा करने का समय किसी के पास नहीं है।  न ही शब्द है न अभ्यास कि दूसरे की प्रशंसा कर उसका मनोबल बढ़ाया जाये।  इसके विपरीत सभी एक दूसरे को नीचा दिखाकर मनोबल गिराने का प्रयास करते हैं। जिनके पास धन, पद और प्रतिष्ठा है उनका अनुकरण वह लोग भी करना चाहते हैं जिनके पास अधिक धन, उच्च पद और प्रतिष्ठा का अभाव है।  परिणाम यह है कि समाज में स्वस्थ प्रतियोगिता की बजाय ईर्ष्या, वैमनस्य और घ्णा का वातावरण बन गया है।  उस पर प्रचार माध्यम भी क्रिकेट, फिल्म तथा राजनीति के शिखर पृरुषों का प्रचार इस तरह करते हैं कि वह समाज के प्रेरक बन जायें।  तय बात है कि उन जैसा स्तर आम आदमी के भाग्य मे नहीं होता पर सपने पालने के कारण वह तनाव झेलता है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

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वेषभाषा अनुकरणं न कुर्य्यात्प्थ्विीपतैः।
         सम्पन्नोऽपि हि मेघावी स्पर्द्धेत न च सद्गुणे।।

      हिन्दी में भावार्थ-राजा  के वेष तथा वार्तालाप की नकल नहीं करना चाहिये। उसी तरह स्वयं भले ही धनी हों पर कभी बुद्धिमान के गुणों से स्पर्धा न करें।
      नीति विशारद चाणक्य यह स्पष्ट रूप से मानते  हैं कि धनी का पूरा समाज सम्मान करता है। यह बात स्वाभाविक है क्योंकि आपत्ति विपत्ति में कोई भी रुपये पैसे के लिये धनी से ही आशा करता है। भले ही कोई धनी पूरे समाज के निर्धनों को उधार या सहायता नहीं देता पर स्वभाविक रूप से  एक आशा तो सभी को बंधी रहती है। इससे अनेक धनी लोग अपने को देवता या भगवान समझते हुए अल्पधनी बुद्धिमान को भी हेय समझने लगते हैं।  वह मानते हैं कि उनके अंदर बुद्धिमानी के गुण स्वाभाविक रूप से होते हैं।  यह उनका भ्रम है।  जिस तरह बुद्धिमान व्यक्ति अपने पास अधिक धन न होने पर धनिकों की होड़ नहीं करते उसी तरह धनवानों को भी चाहिये कि वह बुद्धिमानों की होड़ करते हुए ऐसे काम न करे जिससे उनका धन जाता रहे। हो सके तो बुद्धिमानों से अपनी स्थिति पर चर्चा करते हुए उनसे सलाह  भी लेते रहना चाहिये।                      


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Wednesday, July 17, 2013

तुलसीदास के दोहे-अपने स्वभाव के अनुसार आदमी विष और अमृत चुनता है (tulsidas ke dohe-aadmi apne swabhav ke anushar vish aur amrit chunta hai)



     पता नहीं हमारे देश में मानवता के नाम पर कितनी विचाराधारायें विदेश से आयातित  गयी हैं।  देखा जाये तो यह विचाराधारायें धरती पर स्वर्ग की कल्पना करती है। सभी मनुष्यों में देवत्व ढूंढने का प्रयास करती हैं।  इसमें अपराधियों का हृदय परिवर्तन कर उन्हें सामाजिक विकास की कथित मुख्यधारा से जोड़ने का  प्रयास करती हैं। अनेक लोग तो ऐसे हैं जो खुल्लम खुल्ला अपराधियों की गरीबी, लाचारी और बेबसी का उल्लेख करते हुए उनसे सुधरने का अवसर देने की मांग करते हैं।  हमारे देश में अनेक मानवाधिकार संगठन सक्रिय हैं जो केवल अपराधियों के हकों की लड़ाई यह कहते हुए लड़ते हैं कि उनका अपराध अभी प्रमाणित नहीं हुआ है।  इतना ही नहीं कुछ तो आतंकवादियों को भी  निर्दोष होने का प्रमाण खुद देते हैं और अपने दावे के पक्ष में न्यायालय में चल रहे मुकदमों के निर्णय न होने का तर्क रखते हैं। जांच एजेंसियों के दावों को लगते वह उनके आरोपों को प्रमाण तो स्वीकार नहीं करते पर अपने दावों को प्रमाणपत्र मानते हैं।
      यह मानवाधिकार कार्यकर्ता और नेता हमेशा ही भारतीय जांच एजेंसियों पर आक्षेप करते हैं।  कहीं कहीं आतंकवाद अधिक होने पर उस क्षेत्र की गरीबी और भुखमरी की समस्या का हल करने की मांग करते हुए यह तर्क भी देते हैं कि भूखा आदमी बंदूक नहीं उठायेगा तो क्या करेगा?
  जिसके पास रोटी खरीदने को पैसा नहंीं है वह बंदूक और गोलियां खरीद सकता है यह हास्याप्रद तर्क इन कथित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के श्रीमुख से हमारे प्रचार माध्यमों में खूब सुना जा सकता है।  अधिकतर मानवाधिकार संगठन पश्चिमी विचारधाराओं के पोषक हैं जो राक्षस या शैतान को असांसरिक जीव मानती हैं। इसके विपरीत हमारा दर्शन मानता है कि सुर और असुर दोनों ही इस संसार में समान रूप से विचरते ही  रहेंगे। श्रीमद्भागवत गीता में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इस संसार में सुर तथा असुर प्रवृत्तियां दोनों प्रकार के लोग होते हैं।  इसलिये ज्ञान प्राप्त कर अपने अंदर सुर प्रकृति को जीवंत बनाये रखने के साथ आसुरी प्रकृति के लोगों से दूर रहना चाहिये।  उनसे सुधरने की आशा करना व्यर्थ है।
संत तुलसीदास ने कहा है कि
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भलो भलाहहि पै लहई, लहई निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरतां, गरल सराहिअ मीचु।।
      सामान्य हिन्दी में भावार्थ-भले मनुष्य को भलाई तथा नीच व्यक्ति को नीचता ही पसंद आती है। अमरता चाहने वाले अमृत की और मरने मारने के लिये उत्सुक आदमी विष की प्रशंसा करता है।
मिथ्या माहुर सज्जनहि, खालहि गरल सम सांच।
तुलसीछुवत पराई ज्यों, पारद पावक आंच।।
         सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-सज्जन पुरुष के लिये असत्य  तो दुर्जन के लिये  सत्य विष की तरह होता है। सज्जन असत्य तथा तथा तथा दुर्जन सत्य से वैसे ही भागते हैं जैसे अग्नि की आंच से पारा उड़ जाता है
   जिनके अंदर आसुरी प्रकृत्तियां हैं उन्हें ज्ञान देकर उन्हें सुधारने की आशा करना व्यर्थ है।  फिर गुण ही गुणों को बरतते का सिद्धांत भी समझना चाहिये। जिनके हाथ में हथियार हैं उनमें क्रूरता का भाव स्वाभाविक रूप से आयेगा यह बात समझना चाहिये। इस मामले में नारियों में श्रेष्ठ सीता ने वनवास के दौरान अपने पति श्रीराम को यही समझाया था कि अगर आप इस तरह अस्त्र शस्त्र अपने पास रखेंगे तो आपके हाथ से जीव हत्या होती ही रहेगी।  तब श्रीराम ने यह कहते हुए अस्त्र शस्त्र त्यागने से इंकार किया कि इससे वह समाज के लिये हिंसक जीवों का वध करने के लिये ही धारण किये हुए हैं। सीता जी ने एक कथा भी श्री राम को सुनाई थी।  उनके अनुसार एक ऋषि की तपस्या से देवराज इंद्र विचलित हुए। उन्होंने उनको अपनी तपस्या के मार्ग से हटाने का मार्ग यह निकाला कि उसे अपना एक फरसा धरोहर के रूप में रखने का आग्रह किया। वह  ऋषि रोज उस फरसे को देखते थे। धीरे वह उसमें इतना लिप्त हो गये कि उसी फरसे से हिंसा करने लगे।  वह देवत्व से राक्षसत्व को प्राप्त हो गये।
        कहने का अभिप्राय है कि जिनके अंदर दुष्टता का भाव है उनसे सुधरने की आशा करना बेकार है।  दुष्ट लोग सत्य से बिदकते हैं।  वह दूसरों को अमृत बांटने की बजाय विष देने के लिये अधिक तत्पर रहते हैं।  ऐसे लोगों से सुधारने के प्रयास की बजाय उनसे दूर रहने का प्रयास करना ही श्रेयस्कर है। यदि वह लोगा आक्रामक हों तो उसका वैसा ही प्रतिकार करने के लिये तत्पर भी होना चाहिये।

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Thursday, May 30, 2013

मनुस्मृति से संदेश-युद्ध में जय पराजय तय नहीं होती (manu smriti se sandesh-yuddh mein jay parajay tay nahin hoti)



                          विश्व इतिहास में अनेक युद्ध हो चुके हैं पर किसी का कोई स्थाई नतीजा नहीं निकला। कभी धर्म  तो कभी संस्कृति की रक्षा या फिर उनकी स्थापना के नाम पर अनेक महारथियों ने युद्ध लड़े पर पहले तो उनको कोई उपलब्धि नहीं मिली और मिली तो वह स्थाई नहीं रही। हमारे देश में हिटलर तथा नेपोलियोन की चर्चा बहुत होती है।  खासतौर से भारतीय विचाराधाराओं को वर्तमान संदर्भ में अप्रासांगिक मानने वाले बुद्धिमान लोग हिटलर, मुसोलनी तथा स्टालिन के साथ ही नेपोलियन की महानता का जिक्र करते हुए भी नहीं थकते।  राज्य प्राप्त कर  उससे समाज में बदलाव लाने की नीति का प्रवर्तक हिटलर को ही माना जा सकता है।  हमारे देश में ही अनेक ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो कहीं न कहीं हिटलर से प्रभावित हैं, पर सच बात तो यह है कि हिटलर की आक्रामक प्रवृत्ति के वजह से न केवल जर्मनी बंटा बल्कि अंततः उसे स्वयं भी अपनी जान गंवानी पड़ी।  आधुनिक विश्व इतिहास में ऐसी अनेक घटनायें दर्ज हैं जब कोई राज्य प्रमुख अपनी प्रजा का हित करने में असफल रहने पर  अपने से कमजोर देशों के साथ युद्ध कर उससे प्राप्त विजय से जनता में विश्वास हासिल करने का प्रयास करता है।  हिटलर ने चालाकी से राज्य प्राप्त किया पर प्रजा के लिये वह कुछ अधिक कर सका हो यह इतिहास में दर्ज कहीं नहीं मिलता।  वह हमेशा ही युद्धों में व्यस्त रहा।  नतीजा यह रहा कि उसका नाम एक तानाशाह राज्य प्रमुख के रूप में लिया जाता है पर प्रजा हित करने के लिये उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता। 
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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अनित्यो विजयो यस्माद् दृश्यते युध्यमानयोः।
पराजयश्च संग्रामे तस्माद् वृद्ध्र विवर्जयेत्।।
           हिन्दी में भावार्थ-युद्ध में जय तथा पराजय अनिश्चित होती है इसलिये जहां तक हो सके इसलिये युद्ध से बचना चाहिये।
साम्रा दानेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक्।
विजेतृः प्रयतेतारीन्न युद्धेन कदाचन्।
       हिन्दी में भावार्थ-जीत की इच्छा करने वाले राज को साम, दाम तथा भेद की रणनीति का सहारा लेना चाहिये। किसी भी विधि से शत्रु को अपने अनुकूल बनाने के प्रयास में असफल होने पर ही युद्ध का विचार करना चाहिये।
        युद्ध के बारे में तो यह कहा जाता है कि उसमें हारने वाले के पास कुछ नहीं बचता तो जीतने वाला भी बहुत कुछ गंवाता है।  अपने शत्रु से निपटने के चार तरीके हैं-साम, दाम, भेद तथा दंड।  इनमे प्रथम तीन तरीके राज्य प्रमुख की बुद्धिमता का प्रमाण माना जाता है।  सच बात तो यह है कि राजनीति का अर्थ यह कदापि नहीं है कि वह केवल राज्य कर्म के लिये है।  राजनीति सिद्धांतों का  निजी जीवन में उसका उपयोग होता है।  राजनीति राजस भाव का ही अंश है और इस भाव का राज्य कर्म तो केवल एक भाग है।  परिवार, मित्रता, व्यवसाय तथा धर्म के क्षेत्र में इन चारों नीतियों का पालन करना आवश्यक होता है।  व्यक्तिगत जीवन में हर मनुष्य को प्रत्यक्ष वाद विवाद से बचना चाहिये।  इससे न केवल अपनी शारीरिक हानि की संभावना होती है बल्कि कानून टूटने का अंदेशा भी होता है।  एक बात तय है कि राज्य कर्म हो या निज कर्म हमेशा ही बुद्धिमानी से नीति का पालन करना चाहिये।
           
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Saturday, May 11, 2013

निर्दोष पर आरोप लगाने वाला स्वयं भी चैन खो देता है-विदुर नीति (nirdosh par aarop lagane wala swyay ka chain kho deta hai-vidur neeti)

    सामान्य मनुष्य को यह लगता जरूर है कि दुष्ट प्रकृति के लोग बहुत खुश रहते हैं पर यह सच नहीं होता। दूसरे को सताने वाला या अनावश्यक ही दूसरे पर  दोषारोपण करने  वाला कभी स्वयं भी सुखी नहीं रहता। जब कोई मनुष्य दूसरे पर दोषारोपण करते हुए उसके  अहित की बात सोचता है तब वह अपने अंदर भी बेचैनी का भाव लाता है।  अनेक बार देखा गया है कि जब कोई मनुष्य स्वयं  अपराध या  गलती करता है तब वह उसका दोष स्वयं न लेकर दूसरे पर मढ़ता है।  उसके झूठे दोष से पीड़ित व्यक्ति की जो आह निकलती है वह निश्चित रूप से उस पर दुष्प्रभाव डालती है। यह अलग बात है कि इस आह का दुष्प्रभाव तत्काल न दिखाई दे पर कालांतर में उसका परिणाम अवश्य प्रकट होता है।
विदुर नीति में कहा गया है कि
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न च रात्रौ सुखं शेते ससर्प वेश्मनि।
वः कोपयति निर्दोषं सदोषोऽभ्यन्तरे जनम्।।
    हिन्दी में भावार्थ-स्वयं दोषी होते हुए जो दूसरे पर दोषापरोपण करता है वह उसी तरह रात को चैन की नींद नहीं ले पाता जैसे सांप वाले घर में रहने वाला आदमी सो नहीं पाता।
येषु दृष्टेषु दोषः स्तद् योगक्षेमस्य भारत।
सदा प्रसादन तेषां देवतानामिवायरेतफ।।
       हिन्दी में भावार्थ- जिन पर दोषापरोपण करने से स्वयं के सुख में बाधा आती है उन लोगों को देवता की तरह प्रसन्न रखना चाहिये।
            सच बात तो यह है कि दूसरे पर दोषारोपण करने वाला व्यक्ति रात में उसी तरह नहीं सो पाता जैसे कि सांप वाले घर में रहने वाला नहीं सो पाता।  इतना ही नहीं जिन लोगों पर दोषारोपण करने से मन में कष्ट होता है उन्हें देवता की तरह मानते हुए  उनकी पूजा करना चािहये।  आजकल हम जो समाज के लोगों में बढ़ता मानसिक तनाव देख रहे हैं उसका कारण यह भी है कि लोग अपनी गल्तियों के लिये दूसरे पर दोष लगाते हैं।  इससे बचने का एकमात्र उपाय यही है कि समय समय पर आत्ममंथन करते रहें।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Sunday, April 28, 2013

यजुर्वेद से संदेश-एकता से ही समाज और राष्ट्र का अस्तित्व बचना संभव (yajurved se sandesh-ekta se hi samaj aur rashtra ka astitva bachana sambhav)

        इस धरती पर अधिकतर जीव समूह बनाकर चलते हैं।  समूह बनाकर चलने की प्रवृत्ति अपनाने से  मन में सुरक्षा का भाव पैदा होता है। मनुष्य का जिस तरह का दैहिक जीवन है उसमें तो उसे हमेशा ही समूह बनाकर चलना ही चाहिये।  जिन व्यक्तियों में थोड़ा भी ज्ञान है वह जानते हैं कि मनुष्य को समूह में ही सुरक्षा मिलती है।  जब इस धरती पर मनुष्य सीमित में संख्या थे तब वह अन्य जीवों से अपनी प्राण रक्षा के लिये हमेशा ही समूह बनाकर रहते भी थे। जैसे जैसे मनुष्यों की संख्या बढ़ी वैसे अहंकार के भाव ने भी अपने पांव पसार दिये।  अब हालत यह है कि राष्ट्र, भाषा, जाति, धर्म और वर्णों के नाम पर अनेक समूह बन गये हैं।  उनमें भी ढेर सारे उप समूह हैं।  इन समूहों का नेतृत्व जिन लोगों के हाथ में है वह अपने स्वार्थ के लिये सामान्य सदस्यों का उपयोग करते हैं।  आधुनिक युग में भी अनेक मानवीय समूह  नस्ल, जाति, देश, भाषा, धर्म के नाम पर बने तो हैं पर उनमें संघभाव कतई नहीं है।  संसार का हर व्यक्ति  समूहों का उपयोग तो करना चाहता है पर उसके लिये त्याग कोई नहीं करता। यही कारण है कि पूरे विश्व में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में भारी तनाव व्याप्त है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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सम्भूर्ति च विनाशं च यस्तद्वेदोभयथ्सह।
विनोशेन मृतययुं तीत्वी सम्भूत्यामृत मश्नुते।।
     हिन्दी में भावार्थ-जो संघभाव को जानता है वह विनाश एवं मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत जो उसे नहीं जानता वह हमेशा ही संकट को आमंत्रित करता है।

वाचमस्तमें नि यच्छदेवायुवम्।
      हिन्दी में भावार्थ-हम ऐसी वाणी का उपयोग करें जिससे सभी लोगों का एकत्रित हों।

              हृदय में संयुक्त या संघभाव धारण करने का यह मतलब कतई नहीं है कि हम अपनी समूह के सदस्यों से सहयोग या त्याग की आशा करें पर समय पड़ने पर उनका साथ छोड़ दें।  हमारे देश में संयुक्त परिवारों की वजह से सामाजिक एकता का भाव पहले तो था पर अब सीमित परिवार, भौतिकता के प्रति अधिक झुकाव तथा स्वयं के पूजित होने के भाव ने एकता की भावना को कमजोर कर दिया है।  हमने उस पाश्चात्य संस्कृति और व्यवस्था को प्रमाणिक मान लिया है जो प्रकृति के विपरीत चलती है। हमारा अध्याित्मक दर्शन व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के क्रम में चलता जबकि पश्चिम में राष्ट्र, समाज, परिवार और व्यक्ति के क्रम पर आधारित है।  हालांकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन यह भी मानता है कि जब व्यक्ति स्वयं अपने को संभालकर बाद  समाज के हित के लिये भी काम करे तो वही वास्तविक धर्म है।  कहने का अभिप्राय है कि हमें अपनी खुशी के साथ ही अपने साथ जुड़े लोगों के हित के लिये भी काम करना चाहिये।
हिन्दी साहित्य,समाज,अध्यात्म,हिन्दू धर्म दर्शन,hindi sahitya,samaj,ahdyatma,hindu dharma darshan

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, March 23, 2013

यजुर्वेद के आधार पर चिंत्तन-अनेकता के भाव पर व्यक्ति नष्ट हो जाता है (anekta ke bhaav se vyakti nasht hota hai-yajurved ke adhar par chittan)

        इस धरती पर अधिकतर जीव समूह बनाकर चलते हैं।  समूह बनाकर चलने की प्रवृत्ति अपनाने से  मन में सुरक्षा का भाव पैदा होता है। मनुष्य का जिस तरह का दैहिक जीवन है उसमें तो उसे हमेशा ही समूह बनाकर चलना ही चाहिये।  जिन व्यक्तियों में थोड़ा भी ज्ञान है वह जानते हैं कि मनुष्य को समूह में ही सुरक्षा मिलती है।  जब इस धरती पर मनुष्य सीमित में संख्या थे तब वह अन्य जीवों से अपनी प्राण रक्षा के लिये हमेशा ही समूह बनाकर रहते भी थे। जैसे जैसे मनुष्यों की संख्या बढ़ी वैसे अहंकार के भाव ने भी अपने पांव पसार दिये।  अब हालत यह है कि राष्ट्र, भाषा, जाति, धर्म और वर्णों के नाम पर अनेक समूह बन गये हैं।  उनमें भी ढेर सारे उप समूह हैं।  इन समूहों का नेतृत्व जिन लोगों के हाथ में है वह अपने स्वार्थ के लिये सामान्य सदस्यों का उपयोग करते हैं।  आधुनिक युग में भी अनेक मानवीय समूह  नस्ल, जाति, देश, भाषा, धर्म के नाम पर बने तो हैं पर उनमें संघभाव कतई नहीं है।  संसार का हर व्यक्ति  समूहों का उपयोग तो करना चाहता है पर उसके लिये त्याग कोई नहीं करता। यही कारण है कि पूरे विश्व में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में भारी तनाव व्याप्त है।
यजुर्वेद में कहा गया है कि
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सम्भूर्ति च विनाशं च यस्तद्वेदोभयथ्सह।
विनोशेन मृतययुं तीत्वी सम्भूत्यामृत मश्नुते।।
     हिन्दी में भावार्थ-जो संघभाव को जानता है वह विनाश एवं मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत जो उसे नहीं जानता वह हमेशा ही संकट को आमंत्रित करता है।

वाचमस्तमें नि यच्छदेवायुवम्।
      हिन्दी में भावार्थ-हम ऐसी वाणी का उपयोग करें जिससे सभी लोगों का एकत्रित हों।
              हृदय में संयुक्त या संघभाव धारण करने का यह मतलब कतई नहीं है कि हम अपनी समूह के सदस्यों से सहयोग या त्याग की आशा करें पर समय पड़ने पर उनका साथ छोड़ दें।  हमारे देश में संयुक्त परिवारों की वजह से सामाजिक एकता का भाव पहले तो था पर अब सीमित परिवार, भौतिकता के प्रति अधिक झुकाव तथा स्वयं के पूजित होने के भाव ने एकता की भावना को कमजोर कर दिया है।  हमने उस पाश्चात्य संस्कृति और व्यवस्था को प्रमाणिक मान लिया है जो प्रकृति के विपरीत चलती है। हमारा अध्यात्मिक दर्शन व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र के क्रम में चलता जबकि पश्चिम में राष्ट्र, समाज, परिवार और व्यक्ति के क्रम पर आधारित है।  हालांकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन यह भी मानता है कि जब व्यक्ति स्वयं अपने को संभालकर बाद  समाज के हित के लिये भी काम करे तो वही वास्तविक धर्म है।  कहने का अभिप्राय है कि हमें अपनी खुशी के साथ ही अपने साथ जुड़े लोगों के हित के लिये भी काम करना चाहिये।
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Thursday, September 27, 2012

अथर्ववेद से संदेश-ओम (ॐ )शब्द स्वर्ण समान (atharved sesandesh-om shabd as as gold of swana saman)


        श्रीमद्भागवत गीता में ओम (ॐ ) शब्द को परमात्मा का पर्याय माना गया है। अनेक ऋषियों, मुनियों और संतों ने माना है कि ओम शब्द का निरंतर वाणी और मन से उच्चारण करने पर हृदय में पवित्र विचार आते हैं।  बुद्धि और मन शुद्ध होकर सकारात्मक कार्यों के लिये प्रवृत्त होता हैं।  ओम शब्द के वाणी से उच्चारण करने पर शरीर के सारे अंगों पर ऐसा प्रभाव होता है कि अंतर्मन में अद्भुत प्रकाश दीप प्रज्जवलित हो उठता है। उनके विचार तथा व्यवहार में यह प्रकाश विसर्जित दूसरे लोगों को भी प्रसन्नता देता हैं जिन लोगों को संस्कृत के श्लोक मन ही मन दोहराने में परेशानी होती है वह चाहें तो केवल ओम शब्द का जाप करें।
अथर्ववेद में कहा गया है कि
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त्रयः सुपर्णास्त्रिवृता यदायत्रेकाक्षस्मभि-संभूय शका शका।
प्रत्यौहन्मृत्युमृतेन सत्कमन्तर्दधान्त दुरितानी विश्वा।।
        हिन्दी में भावार्थ-जब समर्थ तीन सुवर्ण तिहरे होकर एक अक्षर में सब प्रकार मिल रहे हैं। वे अमृत के साथ सब अनिष्टों को मिटाकर मृत्यु को दूर करते हैं।
     योगासन के दौरान या बाद में ओम शब्द का उच्चारण करने से शरीर में एक अद्भुत रोमांच का अनुभव होता है। ओम शब्द के उच्चारण से वाणी, विचार और व्यवहार में जो स्वर्णिम परिवर्तन आता है उसकी अनुभूति इसका नियमित जाप करने पर ही पता चल सकती है। प्रयोगों से यह बात सिद्ध हो जाती है कि ओम शब्द का निरंतर जाप करने वालों के अंदर गुणात्मक रूप से परिवर्तन आते हैं जो उसके जीवन को उज्जवल पक्ष की तरफ ले जाते हैं।  यह प्रमाण विदेशी अनुसंधानकर्ताओं ने ही प्रस्तुत किया है।  अतः जिन लोगों को अपने जीवन, विचार तथा व्यवहार को प्रकाशमय बनाना है उन्हें ओम शब्द का दीपक अपने मन में स्थापित करना चाहिए।
लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Writer-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Friday, April 13, 2012

पलटू महाराज का दर्शन-दूसरों की नहीं अपनी चिंता करें

              वर्तमान युग के बाज़ार और प्रचारतंत्र के शक्तिशाली हथियारों के आगे आम आदमी लाचार और बेबस होता जा रहा है। टीवी, अखबार, मोबाइल, कंप्यूटर और फिल्मों का प्रभाव समाज में इस तरह हो गया है कि आम इंसान के अंदर स्वचिंत्तन का अभाव हो गया है। वह प्रचार के माध्यम से थोपे जा रहे विषयों को ही सबकुछ मानकर उसमें लिप्त होकर अपने मस्तिष्क में तनाव ला रहा है जिस कारण अनेक रोग पैदा हो रहे हैं। इधर भोग विलासिता की वस्तुओं में नित नित नये मॉडल आ जाते हैं तो एक माह पहले ही खरीदे गये सामान प्राचीन युग के प्रतीत होते है। इस कारण लोग विषयों के पीछे भागते जा रहे हैं। ऐसे में अपने चरित्र पर विचार करने का किसी के पास समय नहीं है पर समाज में सम्मान पाने का मोह सभी को है। इसका उपाय लोगों ने यह ढूंढ लिया है कि दूसरे की निंदा कर अपने को बड़ा साबित करो। यह निहायत घटिया प्रयास है जिसे करते हुए हम लोगों को देख सकते हैं। आत्म मंथन करें तो अपने अंदर भी यह दोष दिखाई देगा।
             पलटू महाराज कहते हैं कि
                 --------------------
           ‘पलटू’ यह सांची कहैं, अपने मन को फेर।
            तुझे पराई क्या परी, अपनी ओर निबेर।।
           ‘‘सच बात तो यह है कि मनुष्य अपने मन का विचार करे। पराई बातों में रुचि लेने से कोई लाभ नहीं बल्कि अपने गुण दोष पर दृष्टिपात करना ही ठीक है।
             सरबरि कबहूं न कीजिये, सबसे रहिये हार।
            ‘पलटू’ ऐसे दास सों, डरिये बारबार।।
         ‘‘सबसे बराबरी करने का विचार छोड़कर हार मान लेना ही बेहतर हैं। जो ऐसा करता है व्यक्ति से डरना चाहिए क्योंकि दूसरों के घर की रौशनी देखकर अपना घर न चलाने वाला ही मानसिक रूप से शक्तिशाली होता है।’’
           चाणक्य महाराज का कहना है कि अगर किसी व्यक्ति को लोकप्रिय होना है तो वह निंदा करना छोड़ दे। हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि दूसरों के सुख को ईर्ष्या न करें। जो लोग ज्ञानी हैं वह सादगी से जीवन जीते हैं उनको कमजोर या गरीब मानने वालों की आज के समाज में कमीनहीं है पर सच यह है कि ऐसे त्यागी और ज्ञानी आम इंसान से अधिक शक्तिशाली होते है। विषयों में आसाक्ति मनुष्य को मानसिक रूप से कमजोर बनाती है पर निष्काम भाव से हृदय में साहस का भाव आता है। अतः उनका सम्मान करना चाहिए। एक बात याद रखें उपभोग प्रवृत्ति कभी शक्ति और स्वास्थ्य का प्रमाण नहीं होती।
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Wednesday, March 21, 2012

विदुर नीति-रोगी के लिये मधुर फल अप्रिय वस्तु

        एक तरफ हमारे संचार माध्यम जहां अपने देश के आर्थिक विकास का ढिंढोरा पीट रहे हैं दूसरी तरफ विश्व के स्वास्थ्य विशारद भारतीय समाज में मधुमेह, हृदय रोग, वायुविकार जैसे दैहिक संकट तथा मनोरोगों के बढ़ते आंकड़ों को प्रस्तुत कर रहे हैं। पश्चिमी शिक्षा से ओतप्रोत देश के बुद्धिजीवी इससे बेखबर लगते हैं। देश में स्वास्थ्य की चिंता करने वाले व्यवसायिक विशेषज्ञ भी रोगों के निवारण का प्रचार कर आर्थिक हित साध रहे हैं। ऐसे बहुत कम अध्यात्मिक चिंतक हैं जो रोगों के निवारण से अधिक आरोग्य रूपी धन का संचय करने के लिये लोगों को प्रेरित करें।
            पिछले कुछ समय से हमारे देश में योग का प्रचार बढ़ा है। यह अच्छी बात है पर इसके साथ ही अध्यात्मिक ज्ञान हो तो आनंद अधिक ही लिया जा सकता है। इसके लिये यह आवश्यक है कि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया जाये। दरअसल जो लोग योगासन और प्राणायाम करने वाले हैं उनके दैहिक विकास न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाते है पर तत्वज्ञान के अभाव में वह जीवन का पूरा आनंद नहीं उठा पाते। ऐसे में उनका मन रुचिकर विषयों की तरफ लगता है। वह चाहते हैं कि उनसे मिलने वाले लोग भी उन जैसे हों। मगर उनको तब निराशा का सामना करना पड़ता है जब बहुतायत रोगग्रस्त लोगों वाले समाज में केवल विकारों वाले विषयों से सामना होता है। तब उनको असहजता का अनुभव होता है। फिर दैहिक विकारों से ग्रसित लोग तो प्रत्यक्ष दिखते हैं पर मानसिक विकारों वाले लोगों की पहचान नहीं होती। मानसिक रोगों से ग्रसित लोग अपने विचार,, वाक्या तथा व्यवहार से अपने आसपास के लोगों को क्षुब्ध कर देते हैं। उनके इस कर्म से अध्यात्मिक ज्ञान रखने वाले विचलित नहीं होते।
                     विदुरनीति में कहा गया है कि
                    ------------------
              रोगार्दिता न फलान्याद्वियन्ते न वै लभन्ते विषयेषु तत्वम्।
               दुःखोपेता रोगिणी नित्यमेव न बुध्यन्ते धनभौगान्न सोख्यम्।
           ‘‘बीमार मनुष्य कभी अमृतदायी फलों का आदर नहीं करता। विषयों में भी आसक्ति से भी उनको कोई सुख नहीं मिलता। रोगी सदा ही कष्ट में रहते हैं उनके लिये भोग और सुख व्यर्थ हो जाते हैं।
              न मनुष्ये गुणः कश्चिद् राजन् सधनतामृते।
              अनातुरत्वाद् भद्रं ते मृतकल्या हि रोगिणः।।
             ‘‘मनुष्य और धन और और आरोग्य को छोड़कर कोई दूसरा गुण नहीं है क्योंकि रोगी मनुष्य तो मृतक समान है।‘‘
                जिस तरह बबूल के पेड़ से आम की अपेक्षा करना व्यर्थ है उसी तरह विकारों से ग्रसित लोगों से सद्व्यवहार की अपेक्षा करना मूर्खता और अज्ञान का प्रमाण है। हम जब किसी व्यक्ति के व्यवहार, विचार या वाक्य से निराश हों तो यह समझना चाहिए कि वह विकार से ग्रसित है। अपने अंदर निराशा या क्रोध का भाव लाने की बजाय उसकी बात को अनसुना करना श्रेयस्कर है। सच बात तो यह है कि हम दूसरों की बात से अपने अंदर गुस्सा लाकर स्वयं को तकलीफ देते हैं। जो विकार से ग्रसित है उसके लिये मधुर वचन बोलना तथा सद्व्यवहार करना कठिन है। तब क्यों अपना खून जलाया जाये।

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Sunday, March 4, 2012

विदुर नीति-जो सुनता नहीं है उसे ज्ञान देना व्यर्थ (vidur neeti-jo sunta nahin hai use gyan dena vyarth)

              हमारे देश में कहीं भी चले जायें जहां चार लोग मिल बैठेंगे वहां अपने अध्यात्म ज्ञान का बखान जरूर करेंगे। अगर हम इन चर्चाओं को देखें तो लगेगा कि इस देश में भ्रष्टाचार, बेकारी, भुखमरी जैसी समस्याओं के साथ ही समाज को नष्ट करने वाली पुरानी रूढ़िवादिता का अस्तित्व दिखना ही नहीं चाहिए। ऐसा हो नहीं रहा है। यहां तक कि पाश्चात्य शिक्षा पद्धति का अनुसरण भी इसलिये किया गया ताकि हमारा समाज विश्व के अन्य देशों की बराबर कर सके। हो इसका उल्टा रहा है। पाश्चात्य प्रणाली पर आधारित शिक्षा में नैतिक ज्ञान का अभाव है और इस कारण अधिक शिक्षित आदमी एक तरह से न तो घर का रह जाता है न घाट का! इसके विपरीत अशिक्षित तथा अल्प शिक्षित कम से कम अपने अध्यात्म दर्शन से तो जुड़े रहने का पाखंड तो कर ही लेते हैं। जहां तक ज्ञान और उसके अनुसरण का प्रश्न है तो समाज की स्थिति देखकर नहीं लगता कि हमारा नैतिक स्तर कोई ऊंचा है। भ्रष्टाचार के विषय में हमारा देश अग्रणी देशों में गिना जाता है।
                       विदुर नीति में कहा गया है कि
                                  --------------
                     असभ्यगपयुक्तं हि ज्ञानं सुकुशलैरपि।
                    उपलभ्यं चाविदितं विदितं चाननुष्ठिम्।।
             ‘‘विद्वान चाहे कितना भी प्रतिष्ठित क्यों न हो यदि उससे कर्तव्य का ज्ञान नहीं हुआ अथवा उस ज्ञान से उचित अनुष्ठान नहीं हुआ तो वह व्यर्थ ही है।
              नष्टं समुद्रे पतितं नष्टं वाक्यमश्रृ्ण्वति।
              अनामास्मनि श्रृतं नष्ट नष्ट हुतमनाग्निकम्।।
           ‘‘समुद्र में गिरी हुई कोई भी वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह जो सुनता नहीं है उससे कही हुई बात भी नष्ट हो जाती है। अजितेंद्रिय पुरुष का शास्त्र ज्ञान और राख में किया हुआ हवन भी नष्ट हो जाता है।
           अगर एक राष्ट्र के रूप में चिंत्तन करें तो भले ही विश्व में हमारे देश को अध्यात्मिक गुरु माना जाता है पर जिस ज्ञान के आधार पर यह छवि बनी है उसके अनुरूप हमारे अनुष्ठान नहीं है। देश में जगह जगह धार्मिक कार्यक्रम और प्रवचन होते हैं। वहां आने वाले असंख्य लोगों को देखें तो पूरा देश ही धर्ममय लगता है पर जब अखबार या टीवी चैनल देखते हैं तो लगता है कि इतना अधर्म शायद ही विश्व में कहीं अन्यत्र होता हो। अपने अध्यात्मिक ज्ञान पर गर्व करने वाले अनेक महानुभाव मिल जायेंगे पर उसका अनुसरण करने वालों की संख्या नगण्य है। एक तरह से हम अपने महापुरुषों से प्राप्त ज्ञान को नष्ट करने में लगे हैं। सच बात तो यह है कि जब तक हमारा नैतिक और अध्यात्मिक स्तर नीचे हैं हमारे यज्ञ, हवन तथा अन्य धार्मिक कर्मकांड व्यर्थ है।
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Sunday, January 22, 2012

दादूदयाल के दोहे-विष को अमृत मत समझो (dadp dayal ke dohe-vish ko amrit mat samjho)

          इस संसार में ऐसे ज्ञानी और ध्यानी लोगों की कमी नहीं है जो अपने सांसरिक ज्ञान को बघारते हुए नहीं थकते। इतना ही नहीं धर्म के नाम कर्मकांडों का महत्व इस तरह किया जाता है कि मानो उनको करने से स्वर्ग मिल जाता है। क्षणिक लाभ और मनोरंजन के लिये लोग अपने संबंध बनाते हैं। उनको ऐसा लगता है कि इससे उनका जीवन आराम से कट जायेगा पर इसके विपरीत ऐसे ही संबंध बाद में बोझ बन जाते हैं।सच बात तो यह है कि मनुष्य अपने जीवन में ऐसे अनेक विषयों से सुख या अमृत की चाह में जुड़ता है जो अंतत: विषदायी सिद्ध होते हैं।
             आजकल हमारे यहां प्रेम विवाहों का प्रचलन अधिक हो गया है। देखा यह जाता है कि अंततः लड़कियों को ही अपने परिवार से वेदना अधिक मिलती है। एक तो उनके परिजन उसकी सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं और अपनी मर्जी से विवाह करने का आरोप लगाकर संपर्क नहीं रखते दूसरे पति के परिजन भी दहेज आदि न मिलने के कारण उनको बहू रूप में ऐसे स्वीकारते हैं जैसे कि मजबूरी हो। फिर परिवार आदि में खटपट तो होती है साथ ही चाहे लड़की नौकरीशुदा हो या नहीं उससे अपेक्षा यह की जाती है कि वह घर का काम करे। ऐसे में जिन लड़कियों ने प्रेम विवाह किया होते हैं उनको वही लड़के संकट देते हैं जिन्हें उन्होंने प्रेमवश सर्वस्व न्यौछावर किया होता है।
संत कवि दादू दयाल कहते हैं कि
....................
झूठा साचा करि लिया, विष अमृत जाना।
दुख कौ सुख सब कोइ कहै, ऐसा जगत दिवाना।।
          ‘‘मनुष्य को सत्य असत्य, विष अमृत और दुःख सुख की पहचान ही नहीं है। लोगों का दीवाना पन ऐसा है दुख देने वाली वस्तुओं और व्यक्तियों से सुख मिलने की आशा करते हैं।                    ‘‘मनुष्य को सत्य असत्यए विष अमृत और दुःख सुख की पहचान ही नहीं है। लोगों का दीवाना पन ऐसा है दुख देने वाली वस्तुओं और व्यक्तियों से सुख मिलने की आशा करते हैं।                
       इस तरह दीवानापन लड़कों में भी देखा जाता है। वह लड़कियों के बाह्य रूप देखकर बहक जाते हैं पर जब घर चलाने का अवसर उपस्थित होता है तब पता चलता है कि जीवन उतना सहज नहीं है जितना उन्होंने समझा था। जिस इश्क को उर्दू शायर गाकर थकते नहीं है वही एक दिन नफरत का कारण बन जाता है। आई लव यू कहने वाले फिर आई हेट यू कहने लगते हैं। तत्वज्ञानियों को पता है कि यहां हर देहधारी वस्तु अंततः पुरातन अवस्था में आती है। हम अपने मुख से करेला खायें या मिठाई पेट में अंततः वह कचड़ा ही हो जाता है। हम शराब पियें या शरबत पेट में वह विषाक्त जल में परिवर्तित होता है जिसके जिसके निष्कासन पर ही हमारी देह ठंडी होती है। इस ज्ञान को बुढ़ापे में धारण करने अच्छा है कि बचपन में धारण किया जाये तभी संसार के उन संकटों से बचा जा सकता है जो अज्ञान के कारण हमारे सामने उपस्थित होते हैं। कभी कभी तो उनकी वजह से देह का नाश भी होता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Tuesday, December 27, 2011

चाणक्य नीति-दुष्ट व्यक्ति अपना अभद्र व्यवहार नहीं छोड़ता (chnakya neeti-dusht vyakti apna abhadra vyavhar nahin chhodta)

             ज्ञानी लोग न बहस करते हैं न समाज के सुधार के लिये कोई अभियान चलाते हैं। तत्वज्ञानी जानते हैं कि इस त्रिगुणमयी माया के बंधन में फंसे संसार का प्रत्येक जीव अपनी प्रवृत्ति के अनुसार व्यवहार करता है। वह अपनी प्रवृत्तियों की निवृति का उपाय नहीं जानता। प्रत्येक जीव अपने रहन सहन, खानपान तथा संगत के व्यवहार से प्रभावित होता है। उसकी इंद्रियां जिस प्रकार के बाह्य वातावरण के संपर्क में आती हैं वैसे ही गुण उनके हो जाते हैं। मनुष्य के लिये निरंतर सहज, सरल और परिश्रमी बने रहना संभव नहीं है। काम, क्रोध और लोभ का मार्ग बुरा है पर उसमें भौतिकता का आकर्षण है इसलिये लोगों को उस पर चलना सहज लगता हैं। लोगों को यह लगता है कि प्रेम से नहीं वरन् शक्ति से समाज पर नियंत्रण पाया जाता इसलिये वह क्रोध करते है। कोई ज्ञानी या योगी हो जाये तभी उसकी मानसिकता में परिवर्तन आ सकता है वरना तो बहुत कम ही लोग हैं जो इस संसार की माया के दुष्प्रभाव से बच पाते हैं वरना तो सारा संसार भ्रमित होकर जीना सहज समझता है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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न दुर्जनः साधुदशामुपैति बहुप्रकारैरपि शिक्ष्यमाणः।
आमूलसिक्तः पयसा धृतेन न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति।।
           ‘‘दुष्ट व्यक्ति को कितना भी समझाओ वह अपना अभद्रता का व्यवहार नहीं छोड़ता जैसे नीम का वृक्ष भले ही दूध या धी से सींचा जाये पर वह मधुरता को प्राप्त नहीं कर सकता।
अंतर्गतमलो दृष्टस्तीर्थस्नानशतैरपिः
न शुध्यति यथा भापडं सुरत्या दाहितं च यत्।।
‘‘दुराचार तथा वासना में लिप्त व्यक्ति चाहे सैंकड़ें पर तीर्थ कर पर कभी पवित्र नहीं हो सकता जैसे मदिरा का पात्र तपाये जाने पर भी पवित्र नहीं होता।
        यही कारण है कि जिनमें दुष्टता, स्वार्थ तथा मोह का भाव जिन लोगों में आ जाता है उसमें परिवर्तन की आशा करना व्यर्थ है। उल्टे दूसरे को सुधारने के प्रयास में स्वयं के अंदर ही दुर्गुण आने की आशंका रहती है। इसलिये जहां तक हो सके दुष्ट, स्वार्थी तथा कामी आदमी से दूर रहा जाये। इसके बावजूद अगर वह सामने आकर अपनी औकात दिखाये तो उस पर ध्यान न दिया जाये। वह इस धरती पर नीम के वृक्ष की तरह होते हैं जिनको दूध या घी से भी सींचा जाये पर वह मधुरता का गुण ग्रहण नहीं कर सकते।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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