विश्व इतिहास में अनेक
युद्ध हो चुके हैं पर किसी का कोई स्थाई नतीजा नहीं निकला। कभी धर्म तो कभी संस्कृति की रक्षा या फिर उनकी स्थापना के
नाम पर अनेक महारथियों ने युद्ध लड़े पर पहले तो उनको कोई उपलब्धि नहीं मिली और मिली
तो वह स्थाई नहीं रही। हमारे देश में हिटलर तथा नेपोलियोन की चर्चा बहुत होती है। खासतौर से भारतीय विचाराधाराओं को वर्तमान संदर्भ
में अप्रासांगिक मानने वाले बुद्धिमान लोग हिटलर, मुसोलनी तथा स्टालिन के साथ ही नेपोलियन
की महानता का जिक्र करते हुए भी नहीं थकते।
राज्य प्राप्त कर उससे समाज में बदलाव
लाने की नीति का प्रवर्तक हिटलर को ही माना जा सकता है। हमारे देश में ही अनेक ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो कहीं
न कहीं हिटलर से प्रभावित हैं, पर सच बात तो यह है कि हिटलर की आक्रामक प्रवृत्ति के वजह से
न केवल जर्मनी बंटा बल्कि अंततः उसे स्वयं भी अपनी जान गंवानी पड़ी। आधुनिक विश्व इतिहास में ऐसी अनेक घटनायें दर्ज
हैं जब कोई राज्य प्रमुख अपनी प्रजा का हित करने में असफल रहने पर अपने से कमजोर देशों के साथ युद्ध कर उससे प्राप्त
विजय से जनता में विश्वास हासिल करने का प्रयास करता है। हिटलर ने चालाकी से राज्य प्राप्त किया पर प्रजा
के लिये वह कुछ अधिक कर सका हो यह इतिहास में दर्ज कहीं नहीं मिलता। वह हमेशा ही युद्धों में व्यस्त रहा। नतीजा यह रहा कि उसका नाम एक तानाशाह राज्य प्रमुख
के रूप में लिया जाता है पर प्रजा हित करने के लिये उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता।
मनुस्मृति
में कहा गया है कि
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अनित्यो
विजयो यस्माद् दृश्यते युध्यमानयोः।
पराजयश्च
संग्रामे तस्माद् वृद्ध्र विवर्जयेत्।।
हिन्दी में
भावार्थ-युद्ध में जय तथा पराजय अनिश्चित होती है इसलिये जहां तक हो सके
इसलिये युद्ध से बचना चाहिये।
साम्रा
दानेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक्।
विजेतृः
प्रयतेतारीन्न युद्धेन कदाचन्।
हिन्दी में भावार्थ-जीत की इच्छा करने वाले राज को साम, दाम तथा भेद की
रणनीति का सहारा लेना चाहिये। किसी भी विधि से शत्रु को अपने अनुकूल बनाने के
प्रयास में असफल होने पर ही युद्ध का विचार करना चाहिये।
युद्ध
के बारे में तो यह कहा जाता है कि उसमें हारने वाले के पास कुछ नहीं बचता तो जीतने
वाला भी बहुत कुछ गंवाता है। अपने शत्रु से
निपटने के चार तरीके हैं-साम, दाम, भेद तथा दंड। इनमे प्रथम
तीन तरीके राज्य प्रमुख की बुद्धिमता का प्रमाण माना जाता है। सच बात तो यह है कि राजनीति का अर्थ यह कदापि नहीं
है कि वह केवल राज्य कर्म के लिये है। राजनीति
सिद्धांतों का निजी जीवन में उसका उपयोग होता
है। राजनीति राजस भाव का ही अंश है और इस भाव
का राज्य कर्म तो केवल एक भाग है। परिवार,
मित्रता, व्यवसाय तथा धर्म के क्षेत्र
में इन चारों नीतियों का पालन करना आवश्यक होता है। व्यक्तिगत जीवन में हर मनुष्य को प्रत्यक्ष वाद
विवाद से बचना चाहिये। इससे न केवल अपनी शारीरिक
हानि की संभावना होती है बल्कि कानून टूटने का अंदेशा भी होता है। एक बात तय है कि राज्य कर्म हो या निज कर्म हमेशा
ही बुद्धिमानी से नीति का पालन करना चाहिये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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