माया का खेल निराला
है। सत्य और माया दोनों के संयोग से यह
संसार चलता है। भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में कहा है कि यह संसार
परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित है।
समस्त भूत उसके संकल्प के आधार पर निर्मित है पर वह स्वयं किसी में नहीं
है। माया का सिद्धांत इससे अलग है। वह स्वयं कोई पदार्थ नहीं बनाती है। वह सभी में स्थित भी दिखती है पर किसी भी भूत
को प्राणवान नहीं बनाती। धन, सोना, हीरा, जवाहरात तथा वस्तु
विनिमय के लिये निर्मित सभी पदार्थ माया
की पहचान कराते हैं पर उनमें प्राणवायु प्रवाहित
नहीं होती है। इसके बावजूद मनुष्य उसी के
पीछे भागता है। इस संसार में पेड़, पौद्ये, नदियां, झीलें तथा फूलों में सौंदर्य और सुगंध है पर उसकी बनिस्बत मनुष्य माया के
प्राणहीन स्वरूप पर ही फिदा रहता है।
अब तो विश्व में स्थिति यह
हो गयी है कि नैतिकता, धर्म तथा
सद्भाव की बात सभी करते हैं पर उसे कोई समझता ही नहीं। सभी का उद्देश्य केवल धन
प्राप्त करना है। मन में क्लेश होता है तो
हो जाये। शहर में बदनामी होती है तो होने दो पर किसी तरह पैसा आना चाहिये, इस प्रवृत्ति ने मनुष्य को पाखंडी बना दिया
हैं। पूरे विश्व में धर्म के नाम पर बड़े
बड़े संगठन बन गये हैं। धर्म का प्रचार
करने के लिये अनेक संगठन ढेर सारा पैसा खर्च करते हैं। अनेक जगह तो पैसा तथा अन्य
लोभ देकर धर्मातंरण तक कराया जाता है।
सीधी बात कहें तो धर्म आचरण से अधिक राजनीति तर्थ आर्थिक प्रभाव बढ़ाने वाला
साधन बन गया है। सद्भाव से कर्म करने वाले
को धन सामान्य मात्रा में मिलता है जबकि क्लेश करने और कराने वालों को भारी आय
होती है। आजकल स्थिति तो यह हो गयी है कि
शराब, तंबाकू तथा अन्य व्यसनों
में संलग्न रहने वालों को ढेर सारी कमाई होती है।
इसके अलावा मनोरंजन के नाम पर शोर, भय तथा तनाव बेचने वाले भी महानायकत्व प्राप्त करते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि आजकल धन की प्राप्ति
क्लेश से ही होने लगी है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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तदकस्मत्समाविष्ट कोपेनातिबलीयसा।
नित्यमात्महिताङक्षी न कुर्ष्यादर्थदूषणमुच्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-अचानक
क्रोध आ जाने पर अपने हित की पूर्ति के लिये अर्थ का दूषण न करें। इससे सावधान
रहें।
दूष्यस्याद्भष्णार्थञ्च परित्यागो महीयसः।
अर्थस्य
नीतितत्वज्ञेरर्थदूषणमुच्यते।।
हिन्दी में भावार्थ-दूषित कर्म तथा अर्थ का
अवश्य त्याग करना चाहिये। नीति के ज्ञाताओं ने अर्थ की हानि को ही अर्थ दूषण बताया
है।
दूषित धन का प्रभाव बढ़ने
से समाज का वातावरण दूषित हो गया है। इससे
बचने का कोई उपाय फिलहाल तो नहीं है। कहा
जाता है कि संतोष सदा सुखी पर जब पर्दे पर महानायकत्व प्राप्त कर चुके लोग संतुष्ट न बनो और अपनी प्यास बढ़ाओ जैसे
जुमले सुनाकर समाज की नयी पीढ़ी का मार्गदर्शन कर रहे हों तब यह संभव नहीं है कि
समाज को उचित मार्ग पर ले जाया जाये। फिर भी जिनकी अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि है
उन्हें यह समझना चाहिये कि संसार में क्लेश से प्राप्त धन कभी सुख नहीं दे सकता। इसलिये अपनी रोजी रोटी के साधनों के रूप में सदैव सात्विक स्थानों पर जाने के साथ ही अपनी भावना भी शु0 रखना चाहिये।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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