हमारे देश में जैसे जैसे
भौतिक समृद्धि के कारण जैसे जैसे विलासिता बढ़ रही है लोगों के शरीर टूट रहे हैं।
कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है। आलस्य, विलास तथा प्रमाद के भाव की समाज में प्रधानता हो तो लोगों के मानसिक रूप
से समृद्ध होने की कल्पना करना ही निरर्थक है। स्थिति यह है कि लोगों के पास धन और
विलासिता के ढेर सारे साधन है पर हार्दिक प्रसन्नता उनसे कोसों दूर रहती है। ऐसे
में उनका मन उनको मनोरंजन के लिये इधर उधर दौड़ता है जिसका लाभ भारतीय धार्मिक
ग्रंथों के वाचकों ने खूब उठाया है।
वैसे तो हमारे यहां कथा और सत्संग की
परंपरा अत्यंत पुरानी है पर भौतिक युग में पेशेवर धार्मिक वाचकों ने उसे मनोरंजन
स्वरूप दे दिया है। वह स्वयं ज्ञान पढ़कर
दूसरों को सुनाते हैं। मनोरंजन से ऊबे लोग
उसे ही अध्यात्म का मार्ग समझते हुए भीड़
की भेड़ बनकर ऐसे उपदेशकों को अपना गुरु
बना लेते हैं। स्थिति यह है कि लोगों को
त्याग, दया और दान की प्रेरणा
देने वाले यह उपदेशक अपनी कथाओं के प्रायोजन के लिये सौदेबाजी करते हैं। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इन उपदेशकों को
अपनी कथााओं के लिये अपने साथ ऐसे दल की व्यवस्था करनी होती है जैसे कि नाटक
निर्देशक करते हैं। अपने साथ संगीत और नृत्य कलाकार लेकर अपनी कथाओं के पात्रों का मंच पर
नाटक की तरह प्रस्तुत कर यह कथा वाचक खर्च
भी करते हैं। ऐसे में उनको अपने
कार्यक्रमों के लिये व्यवसायिक प्रबंध कौशल का परिचय देना होता है। देखा जाये तो अध्यात्म साधना एकांत का विषय है
पर गीत संगीत तथा नृत्य के माध्यम से शोर मचाकर यह लोगों का मन वैसे ही हरते हैं
जैसे कि मनोरंजन करना ही अध्यात्म हो।
संत प्रवर कबीर दास जी कहते हैं कि------------------पण्डित और मसालची, दोनों सूझत नाहिं।औरन को करै चांदना, आप अंधेरे माहिं।।सामान्य हिन्दी में भावार्थ-पण्डित और मशाल दिखाने वाले दूसरों को प्रकाश दिखाते हैं, पर स्वयं अंधेरे में रहते हैं।पण्डित केरी पोथियां, ज्यों तीतर का ज्ञान।और सगुन बतावहीं, आपन फंद न जान।।सामान्य हिन्दी में भावार्थ-पण्डित पोथियों पढ़कर ज्ञानोपदेश करत हैं। उनका ज्ञान तीतर की तरह ही है जो दूसरे पक्षियों को ज्ञान देता पर स्वयं पिंजरे में रहता है।
हमारा अध्यात्म अत्यंत समृद्ध है। देखा जाये तो हमारे अध्यात्म का सार श्रीमद्भागवत गीता में पूर्ण रूप से समाहित है। इस छोटे पर महान ग्रंथ का अध्ययन करने पर यह साफ लगता है कि उसमें वर्णित सदेशों से प्रथक अन्य कोई सत्य हो ही नहीं सकता। कहा भी जाता है कि जिसने श्रीगीता का अध्ययन कर लिया उसे फिर अन्य किसी ग्रंथ से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है। हैरानी की बात है कि अपने आपको श्रीगीता सिद्ध बताने वाले उसके संदेश भी इतने विस्तार से बताते हैं कि सामान्य भक्तों के सिर के ऊपर से निकल जाते हैं। उससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि लोग श्रीगीता के प्रवचन के समय ही प्रमाद कर अपनी बात से भक्तों को हंसाते हुए समझाते हैं। प्रमाद राजसी कर्म का परिचायक है और स्वयं को सात्विक कहने वाले इन उपदेशकों को इससे बचना चाहिये।
जिन लोगों को अधिक पुस्तकों
से माथा पच्ची न करनी हो वह प्रातःकाल एक दो श्लोक ही गीता का पढ़ लिया करें। उसका शाब्दिक अर्थ लेकर मन ही मन उसका चिंत्तन
कर भावार्थ समझने का प्रयास करें। आजकल
सिद्ध गुरु मिलना कठिन है। कथित गुरु अपने आश्रमों के विस्तार और भक्तों के संग्रह
को ही अपना लक्ष्य बनाते हें। अतः भगवान
श्रीकृष्ण को अपना गुरु मानते हुए श्रीगीता का अध्ययन करें तो यकीन मानिए स्वतः ही
अध्यात्म का ऐसा ज्ञान प्राप्त होगा जो कथित बड़े संतों के लिये भी दुर्लभ है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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