कहा जाता है कि हमारा देश दो
हजार वर्ष तक गुलाम रहा। दरअसल हम इस गुलामी को राजनीतिक गुलामी तक ही
सीमित मान सकते हैं। इस गुलामी का मुख्य कारण भारतीय क्षेत्र में राजसी पुरुषों की
अज्ञानता को ही जिम्मेदारी माना जा सकता है। हम जब इस संसार की संरचना की बात करें
तो इसके दो वह दो विषयों पर आधारित है-एक अध्यात्म तथा दूसरा सांसरिक कार्य। सांसरिक कार्यों में भौतिकता का बोलबाला रहता
है जो कि राजसी वृत्ति से ही किये जाते हैं। इसमें सात्विक प्रवृत्ति के लोग तो
सांसरिक विषयों से केवल अपनी देह के पालन तक ही संबंध रखते हैं जबकि तामसी
प्रवृत्ति के लोग ज्ञान के अभाव में नकारात्मक विचारों के साथ काम करते हैं।
सांसरिक विषयों में प्रवीणता राजसी प्रवृत्ति के लोगों में होती है पर वह भी तब
जब वह अपने कर्म की प्रकृत्ति तथा क्रिया की साधना का रूप समझें। अगर हम दो हजार वर्ष की राजनीतिक गुलामी की बात
करें तो इसके लिये देश के राजसी पुरुषों को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
मुश्किल यह है कि हमारे
देश के लोग दिखना तो सात्विक चाहते हैं पर उनका मन लिप्त राजसी विषयों में ही रहता
है। फल भी वह राजसी चाहते हैं पर अपनी प्रकृत्ति सात्विक होने का दावा करते हैं।
एक बात तय रही कि एक साथ दोनों प्रकृत्तियां मनुष्य में रह नहीं सकती और न ही एक
कर्म दोनों प्रकृत्तियों का हो सकता है। राजसी कर्म राजसी विधि से ही होता है और
उस समय अपनी मनस्थिति भी वैसी ही रखनी पढ़ती है।
हुआ यह है कि हमारे देश में सात्विक और तामसी प्रवृत्ति के लोगों की ही
जमावड़ा रहा है। सात्विक लोग अपनी देह के
पालन तक ही सांसरिक विषयों से संबंध रखते हैं और तामसी प्रवृत्ति के लोग केवल भोग
की प्रकृत्ति से कार्य करते हैं। तामसी प्रकृत्ति वाले येन केन प्रकरेण धन समेटकर
अपनी तिजोरी तो भरना चाहते हैं पर समाज को देना कुछ नहीं चाहते। ऐसे राजसी प्रकृत्ति के लोग कम ही होते हैं जो इस
हाथ लेना और उस हाथ देना के सिद्धांत पर चलते हैं।
विदुरनीति में कहा गया है कि------------------सहायक बन्धना ह्यर्थाः सहायकश्चार्थबन्धनाः।अन्योन्बन्धनावेती विनान्योन्यं न सिध्यतः।हिन्दी में भावार्थ-धन की प्राप्ति के लिये सहायक चाहिये हैं और सहायकों को धन चाहिये। यह दोनों परस्पर एक दूसरे के आश्रित हैं और आपसी सहायोग से किसी कार्य की सिद्ध हो सकती है।संक्लिष्टकर्माणमतिप्रमादं नित्यानृतं चाट्ढभक्तिं च।विसृष्टरागं पटुमानिनं चाप्येतान् न सेवेत नराधमान् षट्।।हिन्दी में भावार्थ-क्लेश कर्म, अत्यंत प्रमाद, असत्य भाषण, अस्थिर भक्ति, स्नेह भाव से रहित कार्य तथा अत्यंत चतुराई में लिप्त रहने वाले व्यक्ति की सेवा न करें क्योंकि यह अधम माने जाते हैं।
राजसी कर्म में लगे इन्ही
तामसी प्रवृत्ति के लोगों की वजह से ही देश को राजनीतिक गुलामी झेलना पड़ी
हैं। हमारे देश में अनेक राजा महाराजा
हुए पर बहुत कम ऐसे रहे जिनकी लोकप्रियता
जनहित के कामों की वजह से हुई हो। अधिकतर
राजाओं ने अपनी आंतरिक व्यवस्थाओं पर पेशेवर ढंग अपनाने की बजाय परंपरागत प्रणाली
अपनाई। चाटुकारिता, प्रमाद तथा अहंकार के वशीभूत राजाओं ने अपनी व्यवस्था
सामंतों और ज़मीदारों के भरोसे छोड़ दी। इन जमीदारों तथा सामंतों ने भी अपने राजाओं
का अनुसरण कर जनता की उपेक्षा की। राज्य प्रबंधन करने वाले लोगों का लक्ष्य केवल
राजा की रक्षा करना ही रह गया ताकि उनकी श्रेष्ठ स्थिति बनी रहे। यही कारण है कि
बाहरी हमलों में प्रजा का एक बहुत बड़ा वर्ग इन राजाओं के साथ नहीं रहा।
हम आज की स्थिति देखें तो कुछ अलग नहीं लगती।
राजसी कर्म में लगे शिखर पुरुष आम जनता को भले ही देशभक्ति का पाठ पढ़ाते हैं पर
विदेशी देशों के प्रति आकर्षण भी जनता को दिखाते हैं। विदेशी विनिवेश तथा तकनीकी को लाकर देश को
समृद्ध करने की बात करते हैं। विश्व के राजनीतिक पटल परं भारतीय राजसी पुरुषों की छवि दृढ मानसिकता
वाली नहीं मानी जाती। तय बात है कि कहीं न
कहंी उनके व्यक्तित्व में प्रकृत्ति तथा क्रिया साधना के बीच विरोधाभास दिखाई देता
है। हमारे देश में लोकतंत्र है और वैसे ही
लोग जन प्रतिनिधि बनते हैं जैसी जनता होती है।
यकीनन हमारे देश में लोगों भी वैसे ही हैं जैसे कि यहां के राजसी पुरुष।
मुख्य बात यह है कि जो लोग
यह समझते हैं कि उनका काम समाज सेवा या उस पर नियंत्रण करना है उन्हें यह भी देखना
चाहिये कि उसके लिये कौनसी क्रिया साधना होना चाहिये? समाज से कुछ लेना है तो उसे कुछ देना भी होगा। इतना ही
देते हुए दिखना भी होगा। अगर उस पर नियंत्रण
करना है तो अपनी निश्चय तथा विचार दृढ़ भी रहना होगा। हम यहां यह भी कह सकते हैं कि
विदुर महाराज राजनीतिक व्यवस्था के साथ ही समाजवाद के उस सिद्धांत के प्रतिपादक
हैं जिसके लिये हमारे देश बुद्धिमान लोग विदेशी महापुरुषों के विचारों की सहायता
लेते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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