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Saturday, July 27, 2013

कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अमीर को गरीब से गुणों की होड़ नहीं करना चाहिए (economics of kautilya-amir ko garib se gunon ki hod nahin karana chahiye)


         मनुष्य में यह प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से दूसरों के साथ होड़ करने की प्रवृत्त् िहोती है। यही उसके दुःख का मूल कारण भी है।  सच बात तो यह है कि आज कोई भी सुखी नहीं है।  इसका कारण यह कतई नहीं है कि माया की कृपा का लोगों के  पास अभाव है वरन् वह दूसरों पर भी कृपा करती है इसको लेकर सभी लोग परेशान रहते हैं।  सभी लोग:तेरी कमीज  मेरी कमीज से सफेद कैसेकी तर्ज पर जीवन पथ पर चलते हुए चिंतायें पाल रहे हैं।  अनेक लोगों के पास बहुत सारी भौतिक सुविधायें हैं इससे उनको सुख नहीं मिलता बल्कि दूसरे के पास भी वैसे ही साधन हैं यह चीज सभी को परेशान करती है।
           उससे भी बड़ी समस्या यह है कि आधुनिक समय में ढेर सारे सुख सभी के पास हैं। कोई किसी से कम नहंी है इसलिये एक दूसरे की प्रशंसा करने का समय किसी के पास नहीं है।  न ही शब्द है न अभ्यास कि दूसरे की प्रशंसा कर उसका मनोबल बढ़ाया जाये।  इसके विपरीत सभी एक दूसरे को नीचा दिखाकर मनोबल गिराने का प्रयास करते हैं। जिनके पास धन, पद और प्रतिष्ठा है उनका अनुकरण वह लोग भी करना चाहते हैं जिनके पास अधिक धन, उच्च पद और प्रतिष्ठा का अभाव है।  परिणाम यह है कि समाज में स्वस्थ प्रतियोगिता की बजाय ईर्ष्या, वैमनस्य और घ्णा का वातावरण बन गया है।  उस पर प्रचार माध्यम भी क्रिकेट, फिल्म तथा राजनीति के शिखर पृरुषों का प्रचार इस तरह करते हैं कि वह समाज के प्रेरक बन जायें।  तय बात है कि उन जैसा स्तर आम आदमी के भाग्य मे नहीं होता पर सपने पालने के कारण वह तनाव झेलता है।
कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

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वेषभाषा अनुकरणं न कुर्य्यात्प्थ्विीपतैः।
         सम्पन्नोऽपि हि मेघावी स्पर्द्धेत न च सद्गुणे।।

      हिन्दी में भावार्थ-राजा  के वेष तथा वार्तालाप की नकल नहीं करना चाहिये। उसी तरह स्वयं भले ही धनी हों पर कभी बुद्धिमान के गुणों से स्पर्धा न करें।
      नीति विशारद चाणक्य यह स्पष्ट रूप से मानते  हैं कि धनी का पूरा समाज सम्मान करता है। यह बात स्वाभाविक है क्योंकि आपत्ति विपत्ति में कोई भी रुपये पैसे के लिये धनी से ही आशा करता है। भले ही कोई धनी पूरे समाज के निर्धनों को उधार या सहायता नहीं देता पर स्वभाविक रूप से  एक आशा तो सभी को बंधी रहती है। इससे अनेक धनी लोग अपने को देवता या भगवान समझते हुए अल्पधनी बुद्धिमान को भी हेय समझने लगते हैं।  वह मानते हैं कि उनके अंदर बुद्धिमानी के गुण स्वाभाविक रूप से होते हैं।  यह उनका भ्रम है।  जिस तरह बुद्धिमान व्यक्ति अपने पास अधिक धन न होने पर धनिकों की होड़ नहीं करते उसी तरह धनवानों को भी चाहिये कि वह बुद्धिमानों की होड़ करते हुए ऐसे काम न करे जिससे उनका धन जाता रहे। हो सके तो बुद्धिमानों से अपनी स्थिति पर चर्चा करते हुए उनसे सलाह  भी लेते रहना चाहिये।                      


संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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