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Saturday, June 2, 2012

पतंजलि योग साहित्य-क्लेश का संबंध सुख से है (patanjali yog sahitya-sukh aur kliesh ka sambamdh)

         पंचतत्वों से बनी इस देह में मन, बुद्धि और अहंकार प्रकृति स्वतः विराजती हैं। मनुष्य का मन तो अत्यंत चंचल माना जाता है। यही मन मनुष्य का स्वामी बन जाता है और जीवात्मा का ज्ञान नहीं होने देता। अध्यात्म के ज्ञान के अभाव में सांसरिक क्रियाओं के अनुकूल मनुष्य प्रसन्न होता है तो प्रतिकूल होने पर भारी तनाव में घिर जाता है। मकान नहीं है तो दुःख है और है उसके होने पर सुख होने के बावजूद उसके रखरखाव की चिंता भी होती है। धन अधिक है तो उसके लुटने का भय और कम है नहीं है या कम है, तो भी सांसरिक क्रियाओं को करने में परेशानी आती है मनुष्य सारा जीवन इन्हीं  अपनी कार्यकलापों के अंतद्वंद्वों में गुजार देता है। विरले ज्ञानी ही इस संसार में रहकर हर स्थिति में आनंद लेते हुए परमात्मा की इस संसार रचना को देखा करते हैं। अगर किसी वस्तु का सुख है तो उसके प्रति मन में राग है और यह उसके छिन जाने पर क्लेश पैदा होता है। कोई वस्तु नहीं है तो उसका दुःख इसलिये है कि वह दूसरे के पास है। यह द्वेष भाव है जिसे पहचानना सरल नहीं है। मृत्यु का भय तो समस्त प्राणियों को रहता है चाहे वह ज्ञानी ही क्यों न हो। मनुष्य का पक्षु पक्षियों में भी यह भय देखा जाता है।
पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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सुखानुशयी रागः।
‘‘सुख के अनुभव के पीछे रहने वाला क्लेश राग है।’’
‘‘दुःखानुशयी द्वेषः।
‘‘दुःख के अनुभव पीछे रहने वाला क्लेश द्वेष है।’’
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रूडोऽभिनिवेशः।।
            ‘‘मनुष्य जाति में परंपरागत रूप से स्वाभाविक रूप से जो चला आ रहा है वह मृत्यु का क्लेश ज्ञानियों में भी देखा जाता है। उसे अभिनिवेश कहा जाता है।’’
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।
           ‘‘ये सभी सूक्ष्मावस्था से प्राप्त क्लेश चित्त को अपने कारण में विलीन करने के साधन से नष्ट करने योग्य हैं।’’
ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः।।
‘‘उन क्लेशों की वृत्तियां ध्यान से नष्ट करने योग्य हैं।’’
       इस तरह अंतद्वंद्वों में फंसी अपनी मनस्थिति से बचने का उपाय बस ध्यान ही है। ध्यान में जो शक्ति है उसका बहुत कम प्रचार होता है। योगासन, प्राणायाम और मंत्रजाप से लाभ होते हैं पर उनकी अनुभूति के लिये ध्यान का अभ्यास होना आवश्यक है। दरअसल योग साधना भी एक तरह का यज्ञ है। इससे कोई भौतिक अमृत प्रकट नहीं होता। इससे अन्तर्मन   में जो शुद्ध होती है उसकी अमृत की तरह अनुभूति केवल ध्यान से ही की जा सकती है। इसी ध्यान से ही ज्ञान के प्रति धारणा पुष्ट होती है। हमें जो सुख या दुःख प्राप्त होता है वह मन के सूक्ष्म में ही अनुभव होते हैं और उनका निष्पादन ध्यान से ही करना संभव है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, November 6, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-हे मन, कब तक तू दूसरों को प्रसन्न करेगा (man ki prasnnata-bharathari neeti shatak in hindi)

परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदय क्लेशकलितम्।
प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणिगणो विविक्तः संकल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते।।
हिन्दी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि यहां अपने मन को कहते हैं कि‘तू दूसरों के चित्त को प्रसन्न करने के लिये बहुत प्रयास करता है पर अपने हृदय में झांककर नहीं देखता कि यह प्रयास क्लेश का कारण ही है। स्वयं अंतर्मुखी होकर तू अपने हृदय में झांक तो वहीं सारी प्रसन्नता का भंडार है। वहां देख तो परमात्मा स्वयं प्रगट होगा और क्या वह तेरी सुख की कामना पूर्ण नहीं करेगा?
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-आदमी मन का दास है और जैसे वह निर्देश देता है वैसे उसका शरीर संचालित होता है। यह तो आदमी का भ्रम है कि वह अपनी मर्जी से चल रहा है। दूसरे लोगों की चाटुकारिता कर अपना लक्ष्य प्राप्त करने की इच्छा मनुष्य को कभी यंत्रवत तो कभी पशुवत चलने को बाध्य कर देती है। धन, पद, तथा प्रतिष्ठत होने का मोह मनुष्य को कायर तथा बंधुआ बनाकर रख देता है। अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रखकर मनुष्य भला कब खुश रह पाया है? सब कुछ पा लेने के बाद आत्मिक परंतत्रता का बोध जब उसे होने लगता है तब उसका मस्तिष्क तनाव का घर बन जाता है। जिनके आसरे महल खड़े किये उनको अब छोड़ नहीं रह सकता पर मन है कि आज़ादी की मांग करने लगता है। राजाओं, मंत्रियों, साहुकारों, जमींदारों को प्रसन्न करते आम आदमी थक जाता है। वह प्रसन्न नहीं होते क्योंकि वह भी मनुष्य होते हैं और प्रसन्न होने की कला नहीं जानते। ऐसे में थका हुआ आम आदमी भी टूटने लगता है। मन में निराशा के साथ ही जीवन नीरस दिखाई देने लगता है
बाह्य सौंदर्य और वैभव दिखावा है, और उसे पाकर भी मन संतुष्ट नहीं होता। लालच का कोई अंत नहीं है और अहंकार से बड़ा कोई ऐसा शत्रु नहीं है जिससे इंसान परास्त हो जाये। इसके लिये यह आवश्यक है कि अपने अंदर झांका जाये। ध्यान तथा योगासाधना के अभ्यास से देह, मन और विचारों के विकार बाहर निकाल दिये जायें तो अपने हृदय में निर्मलता का भाव लाया जा सकता है जो कि साक्षात् परमात्मा की निकटता की अनुभूति कराता है। हृदय में परमात्मा विराज गये तो फिर बाकी सुखों से को कोई प्रयोजन नहीं रहता और जीवन आनंदमय हो जाता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com

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Friday, March 12, 2010

मनुस्मृति-धर्म के विषय पर झूठ बोलना अनुचित

एकोऽहमस्मीत्यात्मानं यत्तवं कल्याण मन्यसे।
नित्यं स्थितस्ते हृद्येष पुण्यपापेक्षिता मुनिः।।
हिन्दी में भावार्थ-
यदि कोई मनुष्य यह सोचकर झूठा साक्ष्य दे रहा है कि वह अकेला है और उसे कोई नहीं देख रहा तो वह गलती पर है क्योंकि पाप और पुण्य को देखने वाला परमात्मा सभी के हृदय में रहता है।
अवाविशरास्समस्यन्धे कित्वषी नरकं व्रजेत्।
च प्रश्नवितर्थ ब्रूयात्पृष्ठः सनधर्मनिश्चये।।
हिन्दी में भावार्थ-
धर्म के विषय पर पूछे जाने पर उसका उत्तर झूठा देने वाला भयानक अंधेरे से भरे नरक में गिरता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-कुछ लोगों की आदत होती है कि वह धर्म के नाम पवित्र ग्रंथों में लिखी गयी सामग्री की झूठी मूठी व्याख्या कर लोगों को बहकाते हैं। अनेक लोग इसका आर्थिक लाभ उठाते हैं तो अनेक सामजिक रूप से सम्मानीय बनने के लिये धर्मग्रंथों के संदेशों को तोड़ मरोड़कर लोगों भ्रमित करते हैं। सच बात तो यह है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में अनेक बातें व्यंजना विद्या में लिखी गयी है और उसके लिये भाषा, व्याकरण और साहित्य की समझ होना जरूरी है केवल शाब्दिक अर्थ से ही उनकी व्याख्यान करना अल्पज्ञान का प्रमाण देना ही है। इसके अलावा इन प्राचीन ग्रंथों में अनेक बार उसमें कही गयी बातों में विरोधाभास भी लगता है क्योंकि धार्मिक पुस्तकों में अलग अलग प्रसंगों में विद्वानों ने समय के अनुसार अपने विचार व्यक्त किये हैं। इसका लाभ कुछ अल्पज्ञानी अपने आपको ज्ञानवान प्रमाणिक करने के लिये उनकी गलत व्याख्या कर उठाते हैं। ऐसे लोग बहुत बड़े अपराध के भागी बनते हैं क्योंकि उनका यह दुष्कृत्य झूठी गवाही देने के समान है।
अनेक बार विवादों में लोग झूठे गवाह बन जाते हैं। तब वह सोचते हैं कि कोई उनको देख नहीं रहा पर यह उनका भ्रम है। हमारी देह में रहने वाला आत्मा तो परमात्मा का ही अंश है जो सब देखता है और कहीं न कहीं अपने अपराध के लिये धिक्कारता है यह अलग बात है कि कुछ लोग उसे समझ पाते हैं कुछ नहीं।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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