पंचतत्वों से बनी इस देह
में मन, बुद्धि और अहंकार प्रकृति स्वतः विराजती हैं। मनुष्य का मन तो
अत्यंत चंचल माना जाता है। यही मन मनुष्य का स्वामी बन जाता है और जीवात्मा
का ज्ञान नहीं होने देता। अध्यात्म के ज्ञान के अभाव में सांसरिक
क्रियाओं के अनुकूल मनुष्य प्रसन्न होता है तो प्रतिकूल होने पर भारी तनाव
में घिर जाता है। मकान नहीं है तो दुःख है और है उसके होने पर सुख होने के
बावजूद उसके रखरखाव की चिंता भी होती है। धन अधिक है तो उसके लुटने का भय
और कम है नहीं है या कम है, तो भी सांसरिक क्रियाओं को करने में परेशानी
आती है मनुष्य सारा जीवन इन्हीं अपनी कार्यकलापों के अंतद्वंद्वों में
गुजार देता है। विरले ज्ञानी ही इस संसार में रहकर हर स्थिति में आनंद लेते
हुए परमात्मा की इस संसार रचना को देखा करते हैं। अगर किसी वस्तु का सुख
है तो उसके प्रति मन में राग है और यह उसके छिन जाने पर क्लेश पैदा होता
है। कोई वस्तु नहीं है तो उसका दुःख इसलिये है कि वह दूसरे के पास है। यह
द्वेष भाव है जिसे पहचानना सरल नहीं है। मृत्यु का भय तो समस्त प्राणियों
को रहता है चाहे वह ज्ञानी ही क्यों न हो। मनुष्य का पक्षु पक्षियों में
भी यह भय देखा जाता है।
पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
-------------------
सुखानुशयी रागः।
‘‘सुख के अनुभव के पीछे रहने वाला क्लेश राग है।’’
‘‘दुःखानुशयी द्वेषः।
‘‘दुःख के अनुभव पीछे रहने वाला क्लेश द्वेष है।’’
स्वरसवाही विदुषोऽपि तथा रूडोऽभिनिवेशः।।
‘‘मनुष्य जाति में परंपरागत रूप से स्वाभाविक रूप से जो चला आ रहा है वह मृत्यु का क्लेश ज्ञानियों में भी देखा जाता है। उसे अभिनिवेश कहा जाता है।’’
ते प्रतिप्रसवहेयाः सूक्ष्माः।
‘‘ये सभी सूक्ष्मावस्था से प्राप्त क्लेश चित्त को अपने कारण में विलीन करने के साधन से नष्ट करने योग्य हैं।’’
ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः।।
‘‘उन क्लेशों की वृत्तियां ध्यान से नष्ट करने योग्य हैं।’’
इस तरह अंतद्वंद्वों में फंसी अपनी मनस्थिति से बचने का उपाय बस ध्यान ही
है। ध्यान में जो शक्ति है उसका बहुत कम प्रचार होता है। योगासन,
प्राणायाम और मंत्रजाप से लाभ होते हैं पर उनकी अनुभूति के लिये ध्यान का
अभ्यास होना आवश्यक है। दरअसल योग साधना भी एक तरह का यज्ञ है। इससे कोई
भौतिक अमृत प्रकट नहीं होता। इससे अन्तर्मन में जो शुद्ध होती है उसकी
अमृत की तरह अनुभूति केवल ध्यान से ही की जा सकती है। इसी ध्यान से ही
ज्ञान के प्रति धारणा पुष्ट होती है। हमें जो सुख या दुःख प्राप्त होता है
वह मन के सूक्ष्म में ही अनुभव होते हैं और उनका निष्पादन ध्यान से ही करना
संभव है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका
६.अमृत सन्देश पत्रिका
No comments:
Post a Comment