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Sunday, May 13, 2012

मलूकदास के दोहे-धर्म सार्वजनिक चर्चा का विषय नहीं

         हमारे देश के लोगों की प्रकृति इस तरह की है उनकी अध्यात्मिक चेतना स्वतः जाग्रत रहती है। लोग पूजा करें या नहीं अथवा सत्संग में शामिल हों या नहीं मगर उनमें कहीं न कहीं अज्ञात शक्ति के प्रति सद्भाव रहता ही है। इसका लाभ धर्म के नाम पर व्यापार करने वाले उठाते हैं। स्थिति यह है कि लोग अंधविश्वास और विश्वास की बहस में इस तरह उलझ जाते हैं कि लगता ही नहीं कि किसी के पास कोई ज्ञान है। सभी धार्मिक विद्वान आत्मप्रचार के लिये टीवी चैनलों और समाचार पत्रों का मुख ताकते हैं। जिसे अवसर मिला वही अपने आपको बुद्धिमान साबित करता है।
            अगर हम श्रीमद्भागवत गीता के संदेशों के संदर्भ में देखें तो कोई विरला ही ज्ञानी की कसौटी पर खरा उतरता है। यह अलग बात है कि लोगों को दिखाने के लिये पर्दे या कागज पर ऐसे ज्ञानी स्वयं को प्रकट नहीं करते। सामाजिक विद्वान कहते हैं कि हमारे भारतीय समाज एक बहुत बड़ा वर्ग धार्मिक अंधविश्वास के साथ जीता है पर तत्वज्ञानी तो यह मानते हैं कि विश्वास या अविश्वास केवल धार्मिक नहीं होता बल्कि जीवन केे अनेक विषयों में भी उसका प्रभाव देखा जाता है।
               संत मलूक जी कहते हैं कि 
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               भेष फकीरी जे करै, मन नहिं आये हाथ।
             दिल फकीरी जे हो रहे, साहेब तिनके साथ।
            ‘‘साधुओं का वेश धारण करने से कोई सिद्ध नहीं हो जाता क्योंकि मन को वश करने की कला हर कोई नहीं जानता। सच तो यह है कि जिसका हृदय फकीर है भगवान उसी के साथ हैं।’’
               ‘‘मलूक’ वाद न कीजिये, क्रोधे देय बहाय।
              हार मानु अनजानते, बक बक मरै बलाय।।
          ‘‘किसी भी व्यक्ति से वाद विवाद न कीजिये। सभी जगह अज्ञानी बन जाओ और अपना क्रोध बहा दो। यदि कोई अज्ञानी बहस करता है तो तुम मौन हो जाओ तब बकवास करने वाला स्वयं ही खामोश हो जायेगा।’’
             हमारे यहां धार्मिक, सामाजिक, कला तथा राजनीतिक विषयों पर बहस की जाये तो सभी जगह अपने क्षेत्र के अनुसार वेशभूषा तो पहन लेते हैं पर उनको ज्ञान कौड़ी का नहीं रहता। यही कारण है कि समाज के विभिन्न क्षेत्रों के शिखरों पर अक्षम और अयोग लोग पहुंच गये हैं। ऐसे में उनके कार्यों की प्रमाणिकता पर यकीन नहीं करना चाहिए। मूल बात यह है कि अध्यात्मिक ज्ञान या धार्मिक विश्वास सार्वजनिक चर्चा का विषय कभी नहीं बनाना चाहिए। इस पर विवाद होते हैं और वैमनस्य बढ़ने के साथ ही मानसिक तनाव में वृद्धि होती है। वैसे भी धर्म व्यक्तिगत रूप से निभाने वाला कर्म है उसे  बहस की  विषय वस्तु बनाना व्यर्थ है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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