परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदय क्लेशकलितम्।
प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणिगणो विविक्तः संकल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते।।
हिन्दी में भावार्थ-महाराज भर्तृहरि यहां अपने मन को कहते हैं कि‘तू दूसरों के चित्त को प्रसन्न करने के लिये बहुत प्रयास करता है पर अपने हृदय में झांककर नहीं देखता कि यह प्रयास क्लेश का कारण ही है। स्वयं अंतर्मुखी होकर तू अपने हृदय में झांक तो वहीं सारी प्रसन्नता का भंडार है। वहां देख तो परमात्मा स्वयं प्रगट होगा और क्या वह तेरी सुख की कामना पूर्ण नहीं करेगा?
प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणिगणो विविक्तः संकल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते।।
हिन्दी में भावार्थ-महाराज भर्तृहरि यहां अपने मन को कहते हैं कि‘तू दूसरों के चित्त को प्रसन्न करने के लिये बहुत प्रयास करता है पर अपने हृदय में झांककर नहीं देखता कि यह प्रयास क्लेश का कारण ही है। स्वयं अंतर्मुखी होकर तू अपने हृदय में झांक तो वहीं सारी प्रसन्नता का भंडार है। वहां देख तो परमात्मा स्वयं प्रगट होगा और क्या वह तेरी सुख की कामना पूर्ण नहीं करेगा?
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-आदमी मन का दास है और जैसे वह निर्देश देता है वैसे उसका शरीर संचालित होता है। यह तो आदमी का भ्रम है कि वह अपनी मर्जी से चल रहा है। दूसरे लोगों की चाटुकारिता कर अपना लक्ष्य प्राप्त करने की इच्छा मनुष्य को कभी यंत्रवत तो कभी पशुवत चलने को बाध्य कर देती है। धन, पद, तथा प्रतिष्ठत होने का मोह मनुष्य को कायर तथा बंधुआ बनाकर रख देता है। अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रखकर मनुष्य भला कब खुश रह पाया है? सब कुछ पा लेने के बाद आत्मिक परंतत्रता का बोध जब उसे होने लगता है तब उसका मस्तिष्क तनाव का घर बन जाता है। जिनके आसरे महल खड़े किये उनको अब छोड़ नहीं रह सकता पर मन है कि आज़ादी की मांग करने लगता है। राजाओं, मंत्रियों, साहुकारों, जमींदारों को प्रसन्न करते आम आदमी थक जाता है। वह प्रसन्न नहीं होते क्योंकि वह भी मनुष्य होते हैं और प्रसन्न होने की कला नहीं जानते। ऐसे में थका हुआ आम आदमी भी टूटने लगता है। मन में निराशा के साथ ही जीवन नीरस दिखाई देने लगता है
बाह्य सौंदर्य और वैभव दिखावा है, और उसे पाकर भी मन संतुष्ट नहीं होता। लालच का कोई अंत नहीं है और अहंकार से बड़ा कोई ऐसा शत्रु नहीं है जिससे इंसान परास्त हो जाये। इसके लिये यह आवश्यक है कि अपने अंदर झांका जाये। ध्यान तथा योगासाधना के अभ्यास से देह, मन और विचारों के विकार बाहर निकाल दिये जायें तो अपने हृदय में निर्मलता का भाव लाया जा सकता है जो कि साक्षात् परमात्मा की निकटता की अनुभूति कराता है। हृदय में परमात्मा विराज गये तो फिर बाकी सुखों से को कोई प्रयोजन नहीं रहता और जीवन आनंदमय हो जाता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',GwaliorEditor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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