सुखानुशयी रागः।।
हिन्दी में भावार्थ-सुख प्राप्ति की अनुभूति कराने वाला क्लेश भाव राग का है।
हिन्दी में भावार्थ-सुख प्राप्ति की अनुभूति कराने वाला क्लेश भाव राग का है।
दुःखानुशयी द्वेष।।
हिन्दी में भावार्थ- दुख की अनुभूति के पीछे क्लेश भाव ही द्वेष है।
हिन्दी में भावार्थ- दुख की अनुभूति के पीछे क्लेश भाव ही द्वेष है।
दुग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवासिमता।।
हिन्दी में भावार्थ-दृष्टा और दर्शन का एक होना ‘अस्मिता’ है।
हिन्दी में भावार्थ-दृष्टा और दर्शन का एक होना ‘अस्मिता’ है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन को दृष्टा भाव से जीना भी एक कला है। इस कला में महारत हासिल करने वाले योग साधन तथा ज्ञानी लोग दुःख और सुख के भाव से परे होते हैं। जब मनुष्य को सुख की अनुभूति होती है तो वह उसके अंदर विद्यमान राग के भाव की वजह से है यह समझना चाहिए। जब आदमी के अंदर दुःख की अनुभूति हो तो उसे द्वेष भाव से उत्पन्न ही माने। इन दोनों को क्लेश भाव कहा गया है। हम अगर सहज योग की विधा से अपनी देह की गतिविधियों का अवलोकन करें तो यह दृष्टिगोचर स्वतः होगा कि जब हम नीम का पत्ता और करेला खातें है तब कड़वाहट का अनुभव होता है और मिठाई का सेवन करते हैं तब मिठास लगता है पर यह सभी प्रकार के पदार्थ चाहे मीठे हों या कड़वे देह में जाते ही दोनों कचड़े के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं।
यही स्थिति दृश्य की भी है। हम आंखों से अप्रिय व्यक्ति को देखें या प्रिय को पर उनका प्रभाव एक जैसा ही है क्योंकि अंततः दृश्य अंततः तनाव का कारण बनता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि हम ग्रहण करने वाली इंद्रियों से चाहे जैसा भी ग्रहण करें निष्कासन अंगों तक आते आते उनका प्रभाव कचड़े जैसा ही होता है। इससे यूं भी कहें कि सभी प्रकार के पदार्थों का सेवन करने से जहां देह में विकार आता है वैसे ही श्रवण, दर्शन, स्पर्श तथा गंध ग्रहण करने की क्रियाओं से भी मन और विचारों में विकार आता है। इनका पूर्णरूपेण निष्कासन आवश्यक है जो योग साधना से ही संभव है। इसलिये योगासन, प्राणायाम, ध्यान तथा मंत्र जाप से अभ्यास करने वाले योगी अंततः दृष्टा भाव को प्राप्त हो जाते हैं। उनको राग और द्वेष से उत्पन्न होने वाला क्लेश छू भी नहीं पाता। उनको यह तत्व ज्ञान स्वतः प्राप्त हो जाता है कि इंद्रिया ही इंद्रियों में और गुण ही गुण में बरत रहे हैं। सुख में मिली प्रसन्नता हो या दुःख में प्राप्त विलाप दोनों ही विकार उत्पन्न करने वाले हैं। ऐसी सिद्धि केवल योग साधना से प्राप्त होना संभव है यह निश्चित है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',GwaliorEditor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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