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Saturday, October 30, 2010

चाणक्य नीति-हिसाब किताब में संकोच न करें (chankya neeti-hisab kitab mein sankoch n karen)

अर्थनाशं मनस्तापं गृहे दुश्चरितानि च।
वंचनृ चाऽपमानं च मतिमान्न प्रकाशयेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
अपने धन की हानि, मन का दुःख, घर की कमियां, अपने साथ हुई ठगी तथा किसी के द्वारा अपमानित करने की चर्चा किसी के साथ नहीं करना चाहिए।
धन धान्यप्रयोगेषु विद्यासंग्रहपोषु च ।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्।
हिन्दी में भावार्थ-
धन तथा अनाज के लेनेदेन, किसी कला को सीखने, खाने पीने तथा हिसाब किताब में संकोच न करने वाला व्यक्ति ही जीवन का आनंद उठाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वैसे तो कहा जाता है कि अपना दुःख किसी से कहने पर दिल हल्का होता है पर ऐसा करते हुए यह भी देखना चाहिए कि वह किस प्रकृत्ति का है। अपने पैसे का नुक्सान होने पर अगर हम किसी व्यक्ति को अपना दुःख बताते हैं तो वह हंस कर कहता है कि ‘तुमने यह काम किया ही क्यों? मुझसे पूछा होता!’
वह दस जगह अपनी बात कहेगा और आपके नुक्सान का मज़ाक बना सकता है। मन की पीड़ा मन ही में रहे तो अच्छा है पर कहीं   उसे दूसरे को बताकर सार्वजनिक बना दिया तो वह अपने ही अपमान का कारण बनत सकती है। अपने घर की शिकायतें बाहर के लोगों से करने पर वह सार्वजनिक चर्चा का विषय बनते हैं जिससे परिवार के सदस्य ही अपने को अपमानित अनुभव करते हैं। हमारे देश के अनेक बुजुर्ग पुरुष तथा महिलायें अपने बहु बेटों की शिकायतें इधर उधर करते हैं जिससे उनका स्वयं का ही सामाजिक सम्मान कम होता है और परिवार के सदस्य मानसिक संताप झेलते हैं सो अलग। इससे बचना चाहिए।
उसी तरह कोई काम सीखने में कभी संकोच नहीं करना चाहिए। हिसाब किताब भाई से हो साले से हमेशा साफ रखने का प्रयास करना चाहिए। आमतौर से अधिकतर पारिवारिक तथा सामाजिक विवाद इसी कारण होते हैं कि पहले व्यवहार में संकोच किया जाता है और बाद में वही बवाल बन जाते हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com

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