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Monday, February 15, 2010

चाणक्य नीति- अभ्यास से ही ज्ञान का घड़ा भर जाता है

जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्वसे घटः।
स हेतुः सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च।।
हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह पानी की एक एक बूंद से पानी का घड़ा भर जाता है वैसे ही विभिन्न विद्याओं के थोड़े अभ्यास से ही मनुष्य के अंदर धार्मिक प्रवृत्ति का विकास होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-किसी भी व्यक्ति को जीवन में पूर्णता प्राप्त के लिये उसमें आध्यात्मिक ज्ञान का होना जरूरी है। हमारे देश में अब शैक्षणिक संस्थानों में अध्यात्मिक शिक्षा नहीं देकर केवल रोजगार योग्य बनाया ही जाता है। एक तरह से छात्र को रोटी कमाने लायक यह सोचकर बनाया जाता है कि मनुष्य के लिये यही एक मुश्किल काम है। जबकि सच तो यह है कि जिस परमात्मा ने पेट दिया है उसने अन्न के दानों पर भी खाने वाले का नाम लिख दिया है। फिर इस संसार में क्या मनुष्य ही ऐसा है जो रोटी कमा रहा है और बाकी जीव भूखे मर रहे हैं? सर्वशक्तिमान परमात्मा ने तो इस संसार में शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के जीवों का भोजन का निर्माण भी कर दिया है।
ऐसे में अगर कोई मनुष्य अपने पराक्रम से भौतिक उपलब्धियां प्राप्त करता है तो उसमें प्रशंसा जैसी कोई बात नहीं हैं।  मनुष्य तो वही है जो अपनी बुद्धि से ऐसे काम करे जो अन्य जीव न कर सकते हों और यही उसकी पहचान है।  वह स्वतंत्र रूप से विचरण करे ताकि  मनुष्य यौनि की श्रेष्ठता प्रमाणित हो और इसके लिये अध्यात्मिक ज्ञान का होना जरूरी है।  जबकि स्थिति यह है कि चंद बुद्धिमान ही पूरे समाज पर राज्य कर रहे हैं।  यह कोई अनिवार्य शर्त नहीं है कि हर दिन किसी धार्मिक ग्रंथ का पूरा पाठ ही पढ़ा जाये बल्कि उसका एक अंश पढ़कर उस पर चिंतन भी किया जा सकता है।  जिस तरह एक बूंद से बूंद से घड़ा भरता है वैसे ही एक दो श्लोक या दोहा पढ़ने से भी ज्ञान में श्रीवृद्धि प्राप्त की जा सकती है।



संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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