अहिंसासत्यास्तेब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः।
हिन्दी में भावार्थ-अहिंसा, सत्य, अस्तेय,ब्रह्चर्यऔर अपरिग्रह-यह पांच यम हैं।
शौचसंतोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।।
हिन्दी में भावार्थ-शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर की आराधना-यह पांच नियम हैं।
वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्।
हिन्दी में भावार्थ-जब वितर्क यम और नियम के पालन में बाधा पहुंचाने लगे तो उसके विपरीत विचार का चिंतन करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-शारीरिक योगासन के साथ वैचारिक योग का भी महत्व है क्योंकि जीवन में मनुष्य के कर्म ही उसके फल का आधार होते हैं जिनके करने की शुरूआत मस्तिष्क में उत्पन्न विचार से ही होती है। अहिंसा न करना, सत्य मार्ग पर स्थित रहना, दूसरे के स्वामित्व की वस्तु का अपहरण न करना (जिसे चोरी भी कहा जाता है), काम में अधिक अनुरक्त न रहना तथा भौतिक साधनों के संचय में अधिक रुचि न रखना एक तरह से वैचारिक योगासन है। इनमें स्थित व्यक्ति दृढ़ व्यक्तित्व का स्वामी बन जाता है। इन प्रवृत्तियों को यम कहा जाता है और इनमें स्थित होने पर मनुष्य सिद्ध हो जाता है।
यही स्थिति नियमों की है। प्रातःकाल शौच आदि से निवृत होने पर अपने अंदर जब स्वच्छता का अनुभव हो तभी यह मानना चाहिये कि हम स्वस्थ हैं। इसके अलावा सांसरिक वस्तुओं को लेकर संतोष का भाव रखते हुए तप एवं स्वाध्याय में लीन रहकर ईश्वर की भक्ति करने से अपने अंदर एक महान आनंद की अनुभूति होती है।
अनेक बार जीवन में ऐसे अवसर आते हैं जब हम डांवाडोल होते हैं। ऐसे में विपरीत विचार का चिंतन करना चाहिये। जब हमें क्रोध आये तब शांति का और जब निराशा उत्पन्न हो तब आशा पर विचार करना चाहिये। जब लोभ की प्रवृत्ति जागे तक त्याग का सोचें। जब किसी की निंदा का मन हो तो किसी की प्रशंसा पर विचार करें। इस तरह सकारात्मक प्रवृत्ति का निर्माण करें ताकि जीवन पथ पर अधिक से अधिक आनंद की प्राप्ति हो। यह वैचारिक या साधना मनुष्य को उत्कृष्ट श्रेणी का बनाती है।
हिन्दी में भावार्थ-अहिंसा, सत्य, अस्तेय,ब्रह्चर्यऔर अपरिग्रह-यह पांच यम हैं।
शौचसंतोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।।
हिन्दी में भावार्थ-शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर की आराधना-यह पांच नियम हैं।
वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्।
हिन्दी में भावार्थ-जब वितर्क यम और नियम के पालन में बाधा पहुंचाने लगे तो उसके विपरीत विचार का चिंतन करना चाहिये।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-शारीरिक योगासन के साथ वैचारिक योग का भी महत्व है क्योंकि जीवन में मनुष्य के कर्म ही उसके फल का आधार होते हैं जिनके करने की शुरूआत मस्तिष्क में उत्पन्न विचार से ही होती है। अहिंसा न करना, सत्य मार्ग पर स्थित रहना, दूसरे के स्वामित्व की वस्तु का अपहरण न करना (जिसे चोरी भी कहा जाता है), काम में अधिक अनुरक्त न रहना तथा भौतिक साधनों के संचय में अधिक रुचि न रखना एक तरह से वैचारिक योगासन है। इनमें स्थित व्यक्ति दृढ़ व्यक्तित्व का स्वामी बन जाता है। इन प्रवृत्तियों को यम कहा जाता है और इनमें स्थित होने पर मनुष्य सिद्ध हो जाता है।
यही स्थिति नियमों की है। प्रातःकाल शौच आदि से निवृत होने पर अपने अंदर जब स्वच्छता का अनुभव हो तभी यह मानना चाहिये कि हम स्वस्थ हैं। इसके अलावा सांसरिक वस्तुओं को लेकर संतोष का भाव रखते हुए तप एवं स्वाध्याय में लीन रहकर ईश्वर की भक्ति करने से अपने अंदर एक महान आनंद की अनुभूति होती है।
अनेक बार जीवन में ऐसे अवसर आते हैं जब हम डांवाडोल होते हैं। ऐसे में विपरीत विचार का चिंतन करना चाहिये। जब हमें क्रोध आये तब शांति का और जब निराशा उत्पन्न हो तब आशा पर विचार करना चाहिये। जब लोभ की प्रवृत्ति जागे तक त्याग का सोचें। जब किसी की निंदा का मन हो तो किसी की प्रशंसा पर विचार करें। इस तरह सकारात्मक प्रवृत्ति का निर्माण करें ताकि जीवन पथ पर अधिक से अधिक आनंद की प्राप्ति हो। यह वैचारिक या साधना मनुष्य को उत्कृष्ट श्रेणी का बनाती है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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