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Sunday, October 7, 2012

संत कबीर दास के दोहे-पानी तो झुक कर ही पिया जा सकता है (sant kabir ke dohe-pani to jhukkar hi piya ja sakta hai)

       हर मनुष्य को स्वाभिमान से जीवन व्यतीत करना चाहिए। इसका अर्थ भी यह कदापि नहीं है कि विनम्रता का त्याग करें। हमेशा इस अकड़ में गरदन ऊपर कर न चलें कि आपको किसी की जरूरत नहीं है।  समय के  अनुसार अपने व्यवहार में परिवर्तन लाते रहना चाहिए।  न इतना विनम्र होना चाहिए कि लोग कायर समझने लगें न इतनी उग्रता दिखायें कि लोग अहंकारी समझें।  जहां से मदद और कृपा की आशा हो वहां तो विनम्रता दिखाना चाहिए जहां से न हो वहां भी सरल व्यवहार रखकर यह साबित करें कि आप में निरंकार का भाव है।
        इस संसार में अपने पद, पैसे और प्रतिष्ठा के मद में रहने वाले लोग बहुत मिल जाते हैं और जब उनका पतन होता है उनकी उसी समाज हंसी भी उड़ती है जिससे वह अपने वैभव से पीड़ित किये रहते हैं।  जीवन अनेक रंगों से भरा है।  कभी दुःख है तो कभी सुख, कभी हृास है तो कभी परिहास, कभी सौंदर्य का बोध होता है तो कभी वीभत्स रूप सामने आता है।  ऐसे में मनुष्य को अपने मन पर नियंत्रण रखना चाहिए।  इसके साथ ही वाणी में सदैव मिठास रखते हुए लोगों के साथ प्रेमपूर्वक वार्तालाप करने से अपनी स्वयं की छवि बनती है।      
  संत कबीरदास जी कहते हैं कि
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ऊंचा पानी न टिकै, नीचै ही ठहराय।
नीचा होय सा भरि पियै, ऊंच पियासा जाए।
    ‘‘पानी कभी ऊंचाई पर नहीं टिकता वह नीचे की तरफ बहता है। उसी तरह जिस व्यक्ति को पानी पीना होता है उसे गरदन नीचे करनी पड़ती है। जो अकड़ कर गरदन ऊंची रखता है उसे पानी भी नसीब नहीं होता।’’
      हम जब भी पानी पीते हैं तो गरदन झुकाना पड़ती है। चाहे ग्लास में पियें या सीधे नल से मगर अपनी गर्दन झुकानी पड़ती है।  हालांकि कुछ लोग कह सकते हैं कि गरदन अकड़ कर बोतल से भी पानी पिया जा सकता है तो उनको यह भी बता दें कि स्वास्थ्य वैज्ञानिक इस तरह सीधे पानी पीने से देह को हानि पहुंचने की आशंकायें अब जताने लगे हैं।  उनका कहना है कि सीधे गले में पानी न डालते हुए मुख के माध्यम से अंदर पानी पीना चाहिए।  इससे एक बात पता लगती है कि हमारा अध्यात्मिक दर्शन भी विज्ञान से परिपूर्ण है।



लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
Writer-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Saturday, February 18, 2012

यजुर्वेद से संदेश-अज्ञान की छाया में रहने वाले केवल बातें करते हैं (yajurved se sandesh-agyan ki chhaya mein rahane wale kewal bataen karte hain)

         हमारे देश में धर्म प्रचार की परंपरा है जो कि आमतौर से सत्संग और प्रवचनों के रूप में दिखाई देती है।  इसका लाभ देश के व्यवसायिक बुद्धिमानों ने इस तरह उठाया कि संत और सेठ का अंतर ही नहीं दिखाई देता। प्राचीन ग्रंथों के स्वर्णिम तत्व ज्ञान को रटने वाले गेरुए या सफेद वस्त्र पहनकर उनका प्रवचन करते हैं।  उन्होंने उसे धारण कितना किया है यह केवल ज्ञानी ही समझ सकते हैं। 
   हमारे देश का अध्यात्म ज्ञान अनेक ग्रंथों में वर्णित है। इन ग्रंथों में सकाम तथा निष्काम दोनों प्रकार की भक्ति के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। कर्म और फल के नियमों का उल्लेख किया गया है। यह अंतिम सत्य है कि हर मनुष्य को अपने ही कर्म का फल स्वयं भोगना पड़ता है। कोई व्यक्ति भी किसी की नियति और फल को बदल नहीं सकता। यह अलग बात है कि समस्त ग्रंथों का अध्ययन करने के बावजूद अनेक लोग उसका ज्ञान धारण नहीं कर पाते पर सुनाने में सभी माहिर हैं।
        हमारे देश का तत्वज्ञान प्रकृत्ति और जीवन के मूल सिद्धांतों पर आधारित एक विज्ञान है। इस संबंध में हमारे अनेक प्राचीन ग्रंथ पठनीय है। यह अलग बात है कि उनका रटा लगाने वाले अनेक लोग अपने आपको महान संत कहलाते हुए मायापति बन जाते हैं। उनके आश्रम घास फूस के होने की बजाय पत्थर और सीमेंट से बने होते हैं। उसमें फाइव स्टार होटलों जैसी सुविधायें होती हैं। गुरु लोग एक तरह से अपने महल में महाराज की तरह विराजमान होते हैं और भक्तों की दरबार को सत्संग कहते हैं। तत्वज्ञान का रट्टा लगाना उसे दूसरों को सुनाना एक अलग विषय है और उसे धारण करना एक अलग पक्रिया है।
               इस विषय पर यजुर्वेद में कहा गया है कि
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            नीहारेण प्रवृत्त जल्प्या चासुतृप उम्थ्शासरचरन्ति
‘‘जिन पर अज्ञान की छाया है जो केवल बातें बनाने के साथ ही अपनी देह की रक्षा के लिये तत्पर हैं वह तत्वज्ञान का प्रवचन बकवाद की तरह करते हैं।’’
        तत्वज्ञानी वह नहीं है जो दूसरे को सुनाता है बल्कि वह है जो उसे धारण करता है। किसी ने तत्वज्ञान धारण किया है या नहीं यह उसके आचरण, विचार तथा व्यवहार से पता चल जाता है। जो कभी प्रमाद नहीं करते, जो कभी किसी की बात पर उत्तेजित नहीं होते और सबसे बड़ी बात हमेशा ही दूसरे के काम के लिये तत्पर रहते हैं वही तत्वाज्ञानी हैं। सार्वजनिक कार्य के लिये वह बिना आमंत्रण के पहुंच कहीं भी मान सम्मान की परवाह किये बिना पहंच जाते हैं और अगर कहीं स्वयं कोई अभियान प्रारंभ करना है तो बिना किसी शोरशराबे के प्रारंभ कर देते हैं। लोग उनके सत्कर्म से प्रभावित होकर स्वयं ही उनके अनुयायी हो जाते हैं।
        इसके विपरीत अज्ञानी और स्वार्थी लोग तत्वज्ञान बघारते हैं पर उसे धारण करना तो दूर ऐसा सोचते भी नहीं है। किसी तरह अपने प्रवचन करते हुए आम लोगों को भ्रम में रखते हैं। वह उन कर्मकांडों को प्रोत्साहित करते हैं जो सकाम भक्ति का प्रमाण माने जाने के साथ ही फलहीन माने जाते हैं। अतः जिन लोगों को अध्यात्म में रुचि है उनको अज्ञानी और अज्ञानी की पहचान उस समय अवश्य करना चाहिए जब वह किसी को अपना गुरु बनाते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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Saturday, October 22, 2011

मनुस्मृति-अतिथि सत्कार पवित्र मनुष्य को प्रदान करना चाहिए (atithi satkar pavitra manushya ka pradan karna chahiye-manu smriti)

       हमारे देश में संस्कार तथा संस्कृति के नाम पर भी कई नारे प्रचलित हो गये हैं। इनमें एक है ‘अतिथि देवो भव‘। इसको लेकर बहुत सारी बातें कही जाती हैं जबकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि मेहमान की पात्रता तभी स्वीकार्य है जब वह पवित्र मनुष्य हो। ऐसा नहीं है कि हर किसी को घर के दरवाजे पर आने पर मेहमान का दर्जा देकर उसका स्वागत किया जाये। दरअसल इस तरह के नारे अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित तत्वज्ञान के अभाव में ही समाज में प्रचलित हो गये हैं। कुछ लोग तो यह कहते हैं कि अतिथि सत्कार धर्म का सर्वोच्च रूप है और एक तरह से यज्ञ करने से अधिक श्रेष्ठ है। यह सत्य है कि अगर सुपात्र मनुष्य का अतिथि रूप में सत्कार करना एक तरह यज्ञ ही है पर इसमें पवित्रता का विचार भी होना चाहिए। ज्ञानी लोग हर क्रिया को यज्ञ की तरह मानते हैं। जिस तरह यज्ञ पवित्र स्थान पर पवित्र वस्तुओं से किया जाता है उसी तरह अतिथि सत्कार का धर्म भी पवित्र व्यक्ति को प्रदान किया जाना चाहिए।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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ज्ञानेनैवापरे विप्राः यजन्ते तैमंखेःसदा।
ज्ञानमूलां क्रियामेषां पश्चन्तो ज्ञानचक्षुषा।
            ‘‘तत्वाज्ञानी सभी क्रियाओं को अपने ज्ञान नेत्रों से देखते हुए उसके प्रेरक तत्वों को पहचानते हैं। इस तरह वह अपने ज्ञान से ही यज्ञानुष्ठान करना सबसे महत्वपूर्ण मानते है।
पाषण्डिनो विकर्मस्थान्बैडाव्रतिकांछठान्।
हैंतुकान्वकवृत्तश्चि वांड्मात्रेण्णापि नार्चयेत्।।
          ‘‘पांखडी, दृष्ट, ठग, दूसरों को दुःख पहुंचाने वाला तथा धर्म ग्रंथों में अरुचि रखने भले ही सज्जनता का व्यवहार करे पर उसे कभी मेहमान नहीं बनाना चाहिए। इतना ही नहीं उसका वाणी से भी कभी स्वागत नहीं करना चाहिए।’’
         हमारे देश में पहले शिक्षा के अभाव में लोगों को अध्यात्मिक ग्रंथों का ज्ञान नहीं था तो अब आधुनिक शिक्षा ने उनको एक तरह से विरक्त ही कर दिया गया है। इसलिये चालाक लोग दूसरों को अतिथि सत्कार का धर्म निभाने की राय देते हैं और स्वयं मजे करते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि तत्वज्ञान को समझा जाये। अपनी हर क्रिया को अपने ज्ञान चक्षुओं से देखते हुए यज्ञ होने की अनुभूति की जाये। जीवन में आनंद लेने का यह भी एक तरीका है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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Friday, July 1, 2011

अध्ययन करने से पहले और बाद में आंखों से पानी को स्पर्श करना उपयोगी-हिन्दी चिंत्तन लेख (study, word and water-hindi chinttan lekh)

          वायु तथा जल को न केवल जीवन का आधार माना गया है कि बल्कि उनको ओषधि भी कहा जाता है। जिस तरह प्रातः प्राणायाम से शुद्ध वायु के प्रवेश से शरीर और मन के आंतरिक विकार बाहर निकलते हैं उसी तरह नहाने के दौरान जल के उपयोग से बाहरी अंगों पर शुद्धता आती है। आधुनिक विज्ञान जल की उपयोगिता को लेकर अनेक अनुंसधान कर चुका है। हालांकि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में भी इस विषय पर अनेक बातें कही गयी है।
          मनु स्मृति में कहा गया है कि
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            कृत्वा मूत्रं पूरीपं वा खान्याचान्त उपस्पृशेत्।
            वेदमध्येध्माणश्च अन्नमश्नंश्च सर्वदा
       "मल मूत्र करने के बाद व्यक्ति को सदैव हाथ धोकर आचमन करने के साथ ही पानी का स्पर्श आंखों पर करना चाहिए। सदैव वेद पढ़ने तथा भोजन करने से पहले भी हाथ धोकर आचमन करना चाहिए।"
                आजकल कंप्यूटर का उपयोग बढ़ता जा रहा है पर उससे होने वाली हानियों से रोकने और बचने के उपाय बहुत कम  लोग जानते हैं। कुछ स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं कि कंप्यूटर का उपयोग करने वालों को बीस मिनट से अधिक उस पर काम करने के बाद दो मिनट आंखें बंद रखना चाहिए। इसके अलावा कंप्यूटर से उठकर बाहर आसमान में ताकना चाहिए ताकि आंखों के उन सूक्ष्म तंतुओं का विस्तार होता है जो काम के दौरान सिकुड़ जाते है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही गयी है कि कंप्यूटर पर काम करने वालों को अपनी आंखों में पानी की छींटें मारते रहना चाहिए। कंप्यूटर पर काम करते हुए आंखों में जल सूखने लगता है और आंखों में छींटे मारने से वहां ताजगी आती है। मनृस्मृति में भी कहा गया है कि वेद आदि का अध्ययन करने से पहले और बाद दोनों ही समय आंखों में जल का प्रवेश कराना चाहिए। यही बात हम कंप्यूटर पर काम करते समय भी लागू कर सकते हैं। ऐसे प्रयासों से बहुत सीमा तक कंप्यूटर से होने वाली हानियों से बचा जा सकता है।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर
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Friday, June 17, 2011

बंदर की तरह उछलकूद कर समाजसेवा नहीं होती-रहीम के दोहे (bandar ki tarah samaj seva-rahim ke dohe)

कविवर रहीम कहते है 
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बड़े दीन को दुख, सुनो, लेत दया उर आनि
हरि हाथीं सौं कब हुतो, कहूं रहीम पहिचानि

         "इस संसार में बड़े लोग तो वह जो छोट आदमी की पीड़ा सुनकर उस पर दया करते हैं, परंतु बंदर कभी हाथी नहीं हो सकता-कुछ लोग बंदर की तरह उछलकूद कर दया दिखाते हैं पर करते कुछ नहीं। वह कभी हाथी नहीं हो सकते।"
            हमारे देश में हमेशा  ही दान तथा परोपकार के जरिये समाज सेवा करने की परंपरा रही है।  यही कारण है की हमारे अधिकतर धार्मिक स्थानों पर तीर्थयात्रियों के धर्मशालाएँ बनवाईं गईं।  वहाँ लंगरखाने बनवाए गए। अब पाश्चत्य संस्कृति के प्रभाव ने समाज सेवा को न केवल व्यापार बना  दिया है बल्कि उसके लिए पैसा दूसरों से लेकर लोगों के कल्याण करने की परंपरा विकसित  की गई है। जिसे हम समाज सेवा की दलाली भी कह सकते हैं। यही कारण है कि आजकल बच्चों, विकलांगों, महिलाओं और तमाम के तरह की बीमारियों के मरीजों की सहायतार्थ संगीत कार्यक्रम, क्रिकेट मैच तथा अन्य मनोरंजक कार्यक्रम होते हैं-जो कि मदद के नाम पर दिखावे से अधिक कुछ नहीं है।  ऐसे कार्यक्रमों में  केवल बंदर की तरह उछलकूद होती है। ऐसे व्यवसायिक कार्यक्रम तो तमाम तरह के आर्थिक लाभ के लिये किये जाते हैं। जो सच्चे समाज सेवी हैं वह बिना किसी उद्देश्य के लोगों की मदद करते है, और वह प्रचार से परे अपना काम वैसे ही किये जाते हैं जैसे हाथी अपनी राह पर बिना किसी की परवाह किये चलता जाता है।
            समझदार लोग तो सब जानते हैं पर कुछ बंदर की तरह उछलकूद कर समाजसेवा का नाटक करने वालों को देखकर इस कटु सत्य को भूल जाते है। कई लोग ऐसे कार्यक्रमों की टिकिट यह सोचकर खरीद लेते हैं कि वह इस तरह दान भी करेंगे और मनोरंजन भी कर लेंगे। उन्हें यह भ्रम तोड़ लेना चाहिये कि वह दान कर रहे हैं क्योंकि सुपात्र को ही दिया दान फलीभूत होता है। अतः हमें अपने बीच एसे लोग की पहचान कर लेना चाहिए जो इस तरह समाज सेवा का नाटक करते है। इनसे तो दूर रहना ही बेहतर है।
       
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',ग्वालियर
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Sunday, February 6, 2011

सफलता और लोकप्रियता के लिये जनविरोधी काम न करें-हिन्दी धार्मिक चिंतन (succes and publicity-hindi dharmik chittan)

आज समाज में नाम पाने के लिये कुछ भी कर गुजरने की मनोवृत्ति बढ़ती जा रही है।  प्रचार माध्यमों में नाम पाने का मोह लोगों को अंधा बना देता है। अपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का नायक की तरह प्रचार देखकर कुछ युवा भ्रमित हो जाते हैं।  वैसे भी जनसामान्य को लगता है कि जो लोग अपनी हिंसक अपराधिक प्रवृत्ति की वजह से समाज में डर बनाये रहते हैं वह कोई दमदार आदमी हैं।  उनका रुतवा देखकर सब उनसे संपर्क रखते हैं पर प्रकृति का नियम है कि जो जैसा करेगा वैसा भरेगा।  जो लोग जनविरोधी काम करते हुए आतंक का वातावरण बनाते हैं वह दरअसल स्वयं ही अंदर से डरे रहते हैं। उनकी बदनामी को लोकप्रियता समझना मूर्खता है।  समाज में सम्मान तो केवल उसी आदमी को मिलता है जो जनहित का काम करता है। 
हर मनुष्य में पूज्यता और अहंकार का भाव होता है। जब किसी को धन, पद और प्रतिष्ठा प्राप्त होती है तो फूलकर कुप्पा नहीं समाता और कई लोगों का तो मन ही विचलित हो जाता है। शक्ति आने पर ही अनेक लोग संतुष्ट नहीं होते बल्कि उसका प्रभाव समाज पर दृष्टिगोचर हो और वह डरे इसी उद्देश्य से कुछ लोग अपने बड़प्पन का दुरुपयोग करने लगते हैं। आजकल हम देख सकते है कि देश में अमीरों, उच्च पदस्थ तथा बाहूबली लोगों का आतंक पूरे समाज पर दिखाई देता है। शक्तिशाली वर्ग के लोग अपनी शक्ति से छोटों को संरक्षण देने की बजाय अपनी शक्ति का उपयोग उनको दबाकर आत्म संतुष्टि कर लेते हैं। यही कारण है कि समाज में वैमनस्य का भाव बढ़ रहा है।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि 
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आयत्याञ्प तदात्वे च यत्स्यादास्वादपेशलम्।
तदेव तस्य कुर्वीत न लोकद्विष्टमाचरेत्।।
"भविष्य की अच्छी संभावनाओं को देखते हुए बुद्धिसे जो कार्य करने में अच्छा लगे वही प्रारंभ करे परंतु कभी भी सफलता के लिये जनविरोधी काम न करें।"
श्लाघ्या चानन्दनीया च महतामुफ्कारिता।
करले कल्याणगायत्ते स्वल्पापि सुमहोदयम्।
"उच्च पुरुषों का उपकार कर्म अत्यंत प्रिय तथा आनंदमय लगता है वह अगर किसी का भी थोड़ा कल्याण करते हैं तो उसका महान उदय होता है।"
हम अनेक लोगों का उनके धन, पद और बल की वजह से बड़ा मान लेते हैं पर सच यह है कि वह समाज का भला करना नहीं जानते। बड़े आदमी की थोड़ी कृपा से छोटे आदमी प्रसन्न हो सकत हैं पर इसको समझने की बजाय उसे कुचलकर अपने आप को खुश करना चाहते हैं।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर, पंछी को न छाया मिले, पथिक को फल लागे अति दूर-यह कहावत अधिकतर बड़े लोगों पर लागू होती है। ऐसे लोगों को बड़ा मानना ही एक तरह से गलत है। बड़ा आदमी तो वह है जो लोकहित में अपनी शक्ति का उपयोग करता है न कि जनविरोधी काम करके अपने अहंकार की संतुष्टि! अतः धल, उच्च पद या बाहूबल होने पर छोटे और कमजोर आदमी को संरक्षण देना चाहिये ताकि समाज को एक नई दिशा मिल सके।
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Saturday, August 7, 2010

परमात्मा का इंद्रियों से संबंध-वेदांत दर्शन (bhagwan aur indriyan-vedant darshan in hindi)

करणवच्चेन्न भोगादिभ्यः।
हिन्दी में भावार्थ-
यदि परमात्मा को देह इंद्रिय आदि करणों से युक्त मान लिया गया तो भोग आदि से उनका संबंध सिद्ध हो जायेगा जो कि ठीक नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-<कुछ आस्थावान लोग मानते हैं कि सर्वशक्तिमान केवल जीवात्मा के संचरण का काम करता है। न वह सुनता है, न वह देखता है और न बोलता है, वह तो केवल भक्ति की अनुभूति करता और कराता है। जब कोई भक्त नियमित रूप से उसकी आराधना करता है तो उसके हृदय में निर्मलता का भाव पैदा होता है जिससे उसके शरीर में ही ऐसा तेज व्याप्त हो जाता है जिसका प्रभाव दूसरे लोगों पर पड़ता है इसी कारण वह उनसे सहायता समर्थन पा लेता है। उसी तरह जब कोई मनुष्य कष्ट होने पर आर्त भाव से परमात्मा को पुकारता है तो उसकी अनुभूति परमात्मा तक पहुंचती है और वहां से संदेश किसी देहात्मा तक पहुंचता है और वही उसकी सहायता करता है। कहने का अभिप्राय यह है कि परमात्मा का स्वरूप अनंत है और उसके बारे अनेक तरह की कल्पनायें हम सुनते ही रहते हैं। वेदांत दर्शन में एक एक शब्द की स्वतंत्र व्याख्या है और उसे समझ पाने के लिये यह आवश्यक है कि उसके आशय पर थोड़ा चिंतन अवश्य करें। अक्सर लोग यह कहते हैं कि परमात्मा सब देखता, सुनता और समझता है। भक्तों का यह भाव बुरा नहीं है पर इससे होता यह है कि वह सांसरिक उपलब्धियों कासारा श्रेय भगवान को देते हैं तो दुःख के लिये उसे जिम्मेदार भी मानते हैं। यह अलग बात है कि अपने कर्तापन का अहंकार भी उनमें होता है। सच तो यह है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा त्रिगुणमयी माया से परे है। वह इस संसार का निर्माता और नियंत्रणकर्ता है पर यहां विचरण करने वालों जीवों के कर्म का कारण नहीं है अतः उसके फल का भी उस पर दायित्व नहीं आता। इस संसार में मनुष्य को अपने ही कर्म के अनुसार क्रम से फल मिलता है। सुविधाओं का सेवन और दुविधाओं में फंसने के लिये उसकी बुद्धि और विवेक जिम्मेदार होता है। सकाम भक्ति वाले हर अच्छी और बुरी बात में परमात्मा का तत्व ढूंढने लगते हैं जबकि इसके विपरीत निष्काम भक्त तो अपने साथ होने वाली हर घटना को इस जगत का परिणाम मानते हैं। दूसरी बात यह कि वह दुःख सुख में समान रहते हैं क्योंकि उनको इस बात का आभास होता है कि यह संसार निरंकार परमात्मा की रचना है और यहां अच्छा या बुरा केवल जीव की अनुभूति और दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। अतः वह निरंकार परमात्मा को इंद्रियों से रहित मानते हैं क्योंकि इद्रियों का गुण भोगना है और वह इससे दूर है।  
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Saturday, July 31, 2010

भर्तृहरि नीति शतक-मणि के बावजूद विषधर किसी को प्रिय नहीं होता (mani aur vish-bhartrihari neeti shatak)

आरंभगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमति च पश्चात्
दिनस्य पूर्वाद्र्धपराद्र्ध-भिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
हिन्दी में भावार्थ- जिस तरह दिन की शुरूआत में छाया बढ़ती हुई जाती है और फिर उत्तरार्द्ध  में धीरे-धीरे कम होती जाती है। ठीक उसी तरह सज्जन और दुष्ट की मित्रता होती है।
दुर्जनः परिहर्तवयो विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि सन्
मणिनाः भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर।।
हिन्दी में भावार्थ- इसका आशय यह है कि कोई दुर्जन व्यक्ति विद्वान भी हो  तो उसका साथ छोड़ देना चाहिए। विषधर में मणि होती है पर इससे उससे उसका भयंकर रूप प्रिय नहीं हो जाता।
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-सज्जन व्यक्तियों से मित्रता धीरे-धीरे बढ़ती है और स्थाई रहती है। सज्जन लोग अपना स्वार्थ न होने के कारण बहुत शीघ्र मित्रता नहीं करते पर जब वह धीरे-धीरे आपका स्वभाव समझने लगते हैं तो फिर स्थाई मित्र हो जाते हैं-उनकी मित्रता ऐसे ही बढ़ती है जैसे पूर्वाद्ध में सूर्य की छाया बढ़ती जाती है। इसके विपरीत दुर्जन लोग अपना स्वार्थ निकालने के लिए बहुत जल्दी मित्रता करते हैं और उसके होते ही उनकी मित्रता वैसे ही कम होने लगती है जैसे उत्तरार्द्ध  में सूर्य का प्रभाव कम होने लगता है। पड़ौस तथा कार्यस्थलों में हमारा संपर्क अनेक ऐसे लोगों से होता है जिनके प्रति हमारे हृदय में क्षणिक आत्मीय भाव पैदा हो जाता है। वह भी हमसे बहुत स्नेह करते हैं पर यह यह संपर्क नियमित संपर्क के कारण मौजूद हैं।  उन कारणों के परे होते ही-जैसे पड़ौस छोड़ गये या कार्य का स्थान बदल दिया तो-उनसे मानसिक रूप से दूरी पैदा हो जाती है।  इस तरह यह बदलने वाली मित्रता वास्तव में सत्य नहीं होती। मित्र तो वह है जो दैहिक रूप से दूर होते भी हमें स्मरण करता है और हम भी उसे नहीं भूलते। इतना ही नहीं समय पड़ने पर उनसे सहारे का आसरा मिलने की संभावना रहती है।  अतः स्थितियों का आंकलन कर ही किसी को मित्र मानकर उससे आशा करना चाहिये। जहां तक हो सके दुष्ट और स्वार्थी लोगों से मित्रता नहीं करना चाहिये जो कि कालांतर में घातक होती है।उसी तरह अपने व्यक्तित्व का भी निर्माण इसी तरह करना चाहिए कि वह दूसरों को प्रिय लगे।
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Sunday, May 9, 2010

संत कबीर के दोहे-मोल लिया ईश्वर बोलता नहीं (parmatma ka mahatva-kabir ke dohe)

मूरति धरि धंधा रखा, पाहन का जगदीश
मोल लिया बोलै नहीं, खोटा विसवा बीस
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि लोग मूर्ति का भगवान बनाकर उसकी सेवा करने के बहाने अपना धंधा करते हैं, पर वह मोल लिया ईश्वर बोलता नहीं है इसलिये नकली है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या संपादकीय-आज से नहीं बरसों से मूर्ति पूजा के नाम पर नाटक इस देश में चल रहा है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि और तपस्वी यही कह गये है कि ईश्वर हमारे मन में ही पर फिर भी लोग ऐसी अज्ञानता के अंधेरे में भटकते हैं जहां हर पल उनको रोशनी मिलने की आशा रहती है। मंदिर जो कभी बहुत छोटे थे वह अब बड़े होते गये और उनकी कथित चरणसेवा करने वाले कारों में घूमने लगे हैं फिर भी लोग हैं कि अंधविश्वास के लिये दौड़े जा रहे है। जिसके पास माया का शिखर है वह भी दिखावे के लिये वहां जाता है और अपने दिल को संतोष देने के अलावा वह अन्य लोगों को भी यह संदेश देता है कि वह देख वह कैसा भक्त है। जिसके पास धनाभाव है वह भी वहीं जाता है और देखता है कि वहां धनी लोगों की पूछ है पर फिर भी शायद पत्थर की प्रतिमा की दया हो जाये इस मोह में वह उस पर अपनी श्रद्धा रखता है।
दरअसल मूर्तियों की कल्पना इसलिये की गयी कि मानव मस्तिष्क में इन दैहिक आंखों से देखकर ईश्वर की कल्पना को अपने मन में स्थापित कर ध्यान लगाया जाये और फिर निरंकार की तरफ जाये। इसका कुछ लोगों ने फायदा उठाया और यह कहकर कि ‘अमुक मूर्ति सिद्ध’ है और ‘अमुक जगह सिद्ध है' जैसे भ्रम फैलाकर धंधा करते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि अशिक्षित तो ठीक शिक्षित लोग भी इन चक्करों में आ जाते है। हम देश में अनेक व्यवसायों में लोगों की संख्या का अनुमान करते हैं पर इस धर्म के धंधे में कितने लोग हैं यह कोई बता नहीं सकता है। सच तो यह है कि इस तरह की मूर्ति पूजा एक धंधा ही है जिससे बचा जाना चाहिए। जहां तक भारतीय अध्यात्म दर्शन का सवाल है तो उसमें ईश्वर को अनंत बताया गया है और ध्यान में निरंकार की कल्पना करने के लिये कहा गया है। एकदम निरंकार में ध्यान नहीं लगता इसलिये मूर्तियों की कल्पना की गयी है। इसी परंपरा का लाभ उठाकर कुछ लोग पत्थरों की मूर्तियों को सिद्ध बताकर लोगों की धार्मिक भावनाओं का दोहन करते हैं और उनकी चालों को समझना चाहिए।
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संकलक, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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