करणवच्चेन्न भोगादिभ्यः।
हिन्दी में भावार्थ-यदि परमात्मा को देह इंद्रिय आदि करणों से युक्त मान लिया गया तो भोग आदि से उनका संबंध सिद्ध हो जायेगा जो कि ठीक नहीं है।
हिन्दी में भावार्थ-यदि परमात्मा को देह इंद्रिय आदि करणों से युक्त मान लिया गया तो भोग आदि से उनका संबंध सिद्ध हो जायेगा जो कि ठीक नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-<कुछ आस्थावान लोग मानते हैं कि सर्वशक्तिमान केवल जीवात्मा के संचरण का काम करता है। न वह सुनता है, न वह देखता है और न बोलता है, वह तो केवल भक्ति की अनुभूति करता और कराता है। जब कोई भक्त नियमित रूप से उसकी आराधना करता है तो उसके हृदय में निर्मलता का भाव पैदा होता है जिससे उसके शरीर में ही ऐसा तेज व्याप्त हो जाता है जिसका प्रभाव दूसरे लोगों पर पड़ता है इसी कारण वह उनसे सहायता समर्थन पा लेता है। उसी तरह जब कोई मनुष्य कष्ट होने पर आर्त भाव से परमात्मा को पुकारता है तो उसकी अनुभूति परमात्मा तक पहुंचती है और वहां से संदेश किसी देहात्मा तक पहुंचता है और वही उसकी सहायता करता है। कहने का अभिप्राय यह है कि परमात्मा का स्वरूप अनंत है और उसके बारे अनेक तरह की कल्पनायें हम सुनते ही रहते हैं। वेदांत दर्शन में एक एक शब्द की स्वतंत्र व्याख्या है और उसे समझ पाने के लिये यह आवश्यक है कि उसके आशय पर थोड़ा चिंतन अवश्य करें। अक्सर लोग यह कहते हैं कि परमात्मा सब देखता, सुनता और समझता है। भक्तों का यह भाव बुरा नहीं है पर इससे होता यह है कि वह सांसरिक उपलब्धियों कासारा श्रेय भगवान को देते हैं तो दुःख के लिये उसे जिम्मेदार भी मानते हैं। यह अलग बात है कि अपने कर्तापन का अहंकार भी उनमें होता है। सच तो यह है कि सर्वशक्तिमान परमात्मा त्रिगुणमयी माया से परे है। वह इस संसार का निर्माता और नियंत्रणकर्ता है पर यहां विचरण करने वालों जीवों के कर्म का कारण नहीं है अतः उसके फल का भी उस पर दायित्व नहीं आता। इस संसार में मनुष्य को अपने ही कर्म के अनुसार क्रम से फल मिलता है। सुविधाओं का सेवन और दुविधाओं में फंसने के लिये उसकी बुद्धि और विवेक जिम्मेदार होता है। सकाम भक्ति वाले हर अच्छी और बुरी बात में परमात्मा का तत्व ढूंढने लगते हैं जबकि इसके विपरीत निष्काम भक्त तो अपने साथ होने वाली हर घटना को इस जगत का परिणाम मानते हैं। दूसरी बात यह कि वह दुःख सुख में समान रहते हैं क्योंकि उनको इस बात का आभास होता है कि यह संसार निरंकार परमात्मा की रचना है और यहां अच्छा या बुरा केवल जीव की अनुभूति और दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। अतः वह निरंकार परमात्मा को इंद्रियों से रहित मानते हैं क्योंकि इद्रियों का गुण भोगना है और वह इससे दूर है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://anant-shabd.blogspot.com
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