हमारे देश में धर्म प्रचार की परंपरा है जो कि आमतौर से सत्संग और प्रवचनों के रूप में दिखाई देती है। इसका लाभ देश के व्यवसायिक बुद्धिमानों ने इस तरह उठाया कि संत और सेठ का अंतर ही नहीं दिखाई देता। प्राचीन ग्रंथों के स्वर्णिम तत्व ज्ञान को रटने वाले गेरुए या सफेद वस्त्र पहनकर उनका प्रवचन करते हैं। उन्होंने उसे धारण कितना किया है यह केवल ज्ञानी ही समझ सकते हैं।
हमारे देश का अध्यात्म ज्ञान अनेक ग्रंथों में वर्णित है। इन ग्रंथों में सकाम तथा निष्काम दोनों प्रकार की भक्ति के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। कर्म और फल के नियमों का उल्लेख किया गया है। यह अंतिम सत्य है कि हर मनुष्य को अपने ही कर्म का फल स्वयं भोगना पड़ता है। कोई व्यक्ति भी किसी की नियति और फल को बदल नहीं सकता। यह अलग बात है कि समस्त ग्रंथों का अध्ययन करने के बावजूद अनेक लोग उसका ज्ञान धारण नहीं कर पाते पर सुनाने में सभी माहिर हैं।
हमारे देश का तत्वज्ञान प्रकृत्ति और जीवन के मूल सिद्धांतों पर आधारित एक विज्ञान है। इस संबंध में हमारे अनेक प्राचीन ग्रंथ पठनीय है। यह अलग बात है कि उनका रटा लगाने वाले अनेक लोग अपने आपको महान संत कहलाते हुए मायापति बन जाते हैं। उनके आश्रम घास फूस के होने की बजाय पत्थर और सीमेंट से बने होते हैं। उसमें फाइव स्टार होटलों जैसी सुविधायें होती हैं। गुरु लोग एक तरह से अपने महल में महाराज की तरह विराजमान होते हैं और भक्तों की दरबार को सत्संग कहते हैं। तत्वज्ञान का रट्टा लगाना उसे दूसरों को सुनाना एक अलग विषय है और उसे धारण करना एक अलग पक्रिया है।
हमारे देश का अध्यात्म ज्ञान अनेक ग्रंथों में वर्णित है। इन ग्रंथों में सकाम तथा निष्काम दोनों प्रकार की भक्ति के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है। कर्म और फल के नियमों का उल्लेख किया गया है। यह अंतिम सत्य है कि हर मनुष्य को अपने ही कर्म का फल स्वयं भोगना पड़ता है। कोई व्यक्ति भी किसी की नियति और फल को बदल नहीं सकता। यह अलग बात है कि समस्त ग्रंथों का अध्ययन करने के बावजूद अनेक लोग उसका ज्ञान धारण नहीं कर पाते पर सुनाने में सभी माहिर हैं।
हमारे देश का तत्वज्ञान प्रकृत्ति और जीवन के मूल सिद्धांतों पर आधारित एक विज्ञान है। इस संबंध में हमारे अनेक प्राचीन ग्रंथ पठनीय है। यह अलग बात है कि उनका रटा लगाने वाले अनेक लोग अपने आपको महान संत कहलाते हुए मायापति बन जाते हैं। उनके आश्रम घास फूस के होने की बजाय पत्थर और सीमेंट से बने होते हैं। उसमें फाइव स्टार होटलों जैसी सुविधायें होती हैं। गुरु लोग एक तरह से अपने महल में महाराज की तरह विराजमान होते हैं और भक्तों की दरबार को सत्संग कहते हैं। तत्वज्ञान का रट्टा लगाना उसे दूसरों को सुनाना एक अलग विषय है और उसे धारण करना एक अलग पक्रिया है।
इस विषय पर यजुर्वेद में कहा गया है कि
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नीहारेण प्रवृत्त जल्प्या चासुतृप उम्थ्शासरचरन्ति
‘‘जिन पर अज्ञान की छाया है जो केवल बातें बनाने के साथ ही अपनी देह की रक्षा के लिये तत्पर हैं वह तत्वज्ञान का प्रवचन बकवाद की तरह करते हैं।’’
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नीहारेण प्रवृत्त जल्प्या चासुतृप उम्थ्शासरचरन्ति
‘‘जिन पर अज्ञान की छाया है जो केवल बातें बनाने के साथ ही अपनी देह की रक्षा के लिये तत्पर हैं वह तत्वज्ञान का प्रवचन बकवाद की तरह करते हैं।’’
तत्वज्ञानी वह नहीं है जो दूसरे को सुनाता है बल्कि वह है जो उसे धारण करता है। किसी ने तत्वज्ञान धारण किया है या नहीं यह उसके आचरण, विचार तथा व्यवहार से पता चल जाता है। जो कभी प्रमाद नहीं करते, जो कभी किसी की बात पर उत्तेजित नहीं होते और सबसे बड़ी बात हमेशा ही दूसरे के काम के लिये तत्पर रहते हैं वही तत्वाज्ञानी हैं। सार्वजनिक कार्य के लिये वह बिना आमंत्रण के पहुंच कहीं भी मान सम्मान की परवाह किये बिना पहंच जाते हैं और अगर कहीं स्वयं कोई अभियान प्रारंभ करना है तो बिना किसी शोरशराबे के प्रारंभ कर देते हैं। लोग उनके सत्कर्म से प्रभावित होकर स्वयं ही उनके अनुयायी हो जाते हैं।
इसके विपरीत अज्ञानी और स्वार्थी लोग तत्वज्ञान बघारते हैं पर उसे धारण करना तो दूर ऐसा सोचते भी नहीं है। किसी तरह अपने प्रवचन करते हुए आम लोगों को भ्रम में रखते हैं। वह उन कर्मकांडों को प्रोत्साहित करते हैं जो सकाम भक्ति का प्रमाण माने जाने के साथ ही फलहीन माने जाते हैं। अतः जिन लोगों को अध्यात्म में रुचि है उनको अज्ञानी और अज्ञानी की पहचान उस समय अवश्य करना चाहिए जब वह किसी को अपना गुरु बनाते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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