श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार तत्वज्ञानी इस संसार में अधिक नहीं होते। सामान्य सांसरिक जीवन तो केवल धन के आधार पर ही चलता है। इसलिये सामान्य मनुष्यों से यह आशा करना एकदम व्यर्थ है कि कि लोग गरीब मगर गुणी आदमी का सम्मान करें। अधिकतर लोग अपनी भौतिक आवश्यकताओं को लेकर परेशान रहते हैं। कई लोग तो उधार की आशा में साहुकारों की चाटुकारिता करते है कि उन्होंने उनसे उधार लिया है या फिर भविष्य में उससे लेना पड़ सकता है। हमेशा ही धन की चाहत में लगे लोगों के लिये धनवान और महल आकर्षण का केंद्र बने रहते हैं। यही कारण है कि समाज का नियंत्रण स्वाभाविक रूप से धनिकों के हाथ में रहता है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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यस्याऽर्थातस्थ्य मित्राणि यस्याऽर्थास्तस्य बान्धवाः।
यस्याऽर्थाः स पुमांल्लोकेयस्याऽर्था स च पंडितः।।
‘‘यह इस सांसर के समस्त समाजों का सच है कि जिसके पास धन है उसके बंधु बांधव बहुत है। उसे विद्वान और सम्मानित माना जाता है। यहां तक कि अगर व्यक्ति के पास धन अधिक हो तो उसे महान ज्ञानी माना जाता है।’’
स्वर्गस्थितनामिह जीवलोके चत्वारि चिह्ननि वसन्ति देहे।
दानप्रसङ्गो मधुरा च वाणी देवाऽर्चनं ब्राह्मणतर्पणं च।।
"स्वर्ग से इस धरती पर अवतरित होने वाले दिव्य चार गुण पाये जाते हैं-दान देना, मधुर वचन बोलना देवताओं के प्रति निष्ठा तथा विद्वानों को प्रसन्न करना।’’
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यस्याऽर्थातस्थ्य मित्राणि यस्याऽर्थास्तस्य बान्धवाः।
यस्याऽर्थाः स पुमांल्लोकेयस्याऽर्था स च पंडितः।।
‘‘यह इस सांसर के समस्त समाजों का सच है कि जिसके पास धन है उसके बंधु बांधव बहुत है। उसे विद्वान और सम्मानित माना जाता है। यहां तक कि अगर व्यक्ति के पास धन अधिक हो तो उसे महान ज्ञानी माना जाता है।’’
स्वर्गस्थितनामिह जीवलोके चत्वारि चिह्ननि वसन्ति देहे।
दानप्रसङ्गो मधुरा च वाणी देवाऽर्चनं ब्राह्मणतर्पणं च।।
"स्वर्ग से इस धरती पर अवतरित होने वाले दिव्य चार गुण पाये जाते हैं-दान देना, मधुर वचन बोलना देवताओं के प्रति निष्ठा तथा विद्वानों को प्रसन्न करना।’’
ऐसे में अल्पधनियों को कभी इस बात की चिंता नहीं करना चाहिए कि उनका हर आदमी सम्मान करे। उन्हें अपने सात्विक गुणों का विकास करना चाहिए। मूल बात यह है कि हम अपनी दृष्टि में बेहतर आदमी बने रहें। श्रीमद्भागवत गीता का ज्ञान दूसरों के सामने बघारना आसान है पर उसे धारण कर अपनी जीवन की राह पर चलना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण का गीता में दिया गया संदेश दूसरों को सुधारने की बजाय स्वयं का चेहरा दर्पण में देखने को प्रेरित करता है। वैसे हम धनी हों या अल्पधनी दूसरों से सच्चे सम्मान की अपेक्षा नहीं करना चाहिए। आम मनुष्यों के हृदय में दूसरों के लिये सम्मान की भावना कम ही रहती है। धनिक होने से भले ही समाज सम्मानीय और ज्ञानी माने पर इस कारण अपने स्वाभाविक गुणों का त्याग कर उसका पीछा नहीं करना चाहिए।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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