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Thursday, May 23, 2013

विदुर नीति के आधार पर चिंत्तन-कष्ट से पाया धन व्यर्थ (vidur neeti darshan-kasht se prapat dhan vyarth)



          मनुष्य जीवन को धारण करने वालों के मन मस्तिष्क में  यह भ्रम रहता कि वह केवल धनर्जान करने के लिये ही पैदा हुए हैं।   संसार के अधिकतर मनुष्य  धन को ही सत्य मानते हैं।  धन कमाने के बाद  उसके व्यय का प्रदर्शन कर समाज में अपनी श्रेष्ठता साबित करने का मोह कोई नहीं छोड़ पाता। हमारे देश में धर्म तथा  समाज के नाम पर ऐसी परम्पराएं  बनायीं गयी हैं जिनका निर्वाह बिना धन के संभव नहीं हो सकता।  पुत्र  के लिये व्यवसाय तथा पुत्री के लिये वर ढूंढते हुए हमारे देश के अधिकतर लोगों का जीवन ही निकल जाता है।  हमारे देश के लोगों में धन संचय की प्रवृत्ति इतनी गहरी है कि आधुनिक समय में चालाक बुद्धिमानों के लिये उनके साथ  ठगी करना आसान हो गया है। 
         देश भर में अनेक चिटफंड कंपनियां यह काम इस तरह कर रही है कि लोग अपनी सारी जमा पूंजी उनके पास जमा कर आते हैं।  अधिक व्याज का लोभ लोगो के लिये संकट का कारण तब बनता है जब उनका मूल धन भी हाथ से निकल जाता है।  पीड़ित लोग अधिकतर अपने पृत्र के व्यवसाय या नौकरी तथा बेटी की शादी के लिये धन जमा करने की बात कहते है।  हमारे यहां विवाह तथा मृत्यु के अवसर पर जितनी नाटकबाजी होती है वह धन से ही संभव है।  यही कारण है कि भारत में लोग बच्चों के भविष्य के लिये अधिक से अधिक संचय करते हैं। इतना ही नहीं अपने बुजुर्गों की मृत्यु पर उनके दाह संस्कार के बाद भोज के प्रबंध का जिम्मा भी उन पर रहता है।  समाज में अपनी कथित छवि बचाये रखने के लिये भारत के लिये हर आम आमदी जूझता रहता है।  हमारे देश में सीध सच्चे धंधे में अधिक धनवान होने के अवसर करीब करीब बंद कर दिये गये हैं, जिसका परिणाम यह हुआ है कि अपने पास मौजूद धन की वृद्धि के लिये ऐसे ठगों के जाल में आमजन  आसान से फंस जाते हैं।
                      विदुरनीति में कहा गया है कि
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            अतिक्लेशेन येऽर्याः स्युर्धर्मस्यातिक्रमेश वा।
            अरेवां प्रणपातेन मा स्म तेषु मनकृथाः।।
        हिंदी  में भावार्थ-जिस धन को अर्जित करने में मन तथा शरीर को अत्यंत क्लेश हो, धर्म का उल्लंघन  करना पड़े या फिर शत्रु के सामने अपना सिर झुकाने की बाध्यता उपस्थित हो, उसे प्राप्त  करने का विचार ही त्याग देना श्रेयस्कर है।
                          
            सहस्त्राणिऽपि जीवन्ति जीवन्ति शतिनानथा।
            धृतराष्ट्र निमुंचेच्छां न कथंचिन्न जीव्यते।
       हिन्दी में भावार्थ-जिनके पास हजार है वह जिंदा रहते हैं पर जिनके पास सौ वह भी जिंदा  रहते हैं। धन का लोभ छोड़ने वाले लोग भी हर हालत में अपना जीवन धारण किये रहते ही  हैं।
        हमारे अध्यात्मिक दर्शन के अनुसार  जिस जीव में परमात्मा ने प्राणवायु प्रवाहित की है माया उसकी सेवा करने के लिये बाध्य है। कहा भी जाता है कि जिसने पेट दिया है वह दाना भी देगा।  परमात्मा की दासी माया है न कि उसकी स्वामिनी।  यह भी कहा जाता है कि जिसके भाग्य में माया का जितना भाग आना लिखा है उतना ही मिलेगा। इसके बावजूद धर्मभीरुता का दावा करने वाले हमारे भारतीय समाज के अधिकांश लोगों  को इस पर विश्वास नहीं है। श्रीमद्भागवत गीता से कथित रूप से कर्मप्रेरणा मिलने का दावा करने वाले यहां अनेक लोग मिल जायेंगे पर यह कोई नहीं समझ पाया कि उसमें निष्कर्म की बात कही गयी है न कि सकाम कर्म का सिद्धांत स्थापित किया गया है।  स्थिति यह है कि लोग धन के लिये देह तथा मन को भारी संताप देने के लिये तैयार हो जाते हैं। अपने ही धन के शत्रुओं की चिकनी चुकडी बातों में आकर उसे सौंप देते हैं।  परिणाम यह है कि बाद में जब धोखा मिलता है तो सिवाय आर्तनाद करने के अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प् नहीं रहता। 
         अतः अपने नियमित स्वाभाविक कर्म करते हुए परमात्मा का स्मरण ही करते रहना चाहिये।  संसार के विषयों का चक्र माया की कृपा से चलता ही रहता है।  उसमें एक दृष्टा की तरह शामिल होना चाहिये। समय आने पर सारे काम हो जाते हैं यह विश्वास धारण कर जीवान आनंद से बिताना चाहिये।   

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
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Sunday, May 19, 2013

अथर्ववेद से संदेश-देह और मन को शुद्ध रखने वाला मनुष्य पीड़ाओं से दूर रहता है (atharvaved se sandesh-shariri aur man ko shuddh rakhane wala peedaon se door rahataa hai

           इस संसार में प्रत्येक मनुष्य को संघर्ष करना ही पड़ता है।  इस  संघर्ष में जय पराजय का आधार मनुष्य के अंदर विद्यमान शारीरिक और मानसिक क्षमतायें होती हैं।  जिनका संकल्प दृढ़ होने के साथ हृदय  में कर्म करने से प्रतिबद्धता है वह व्यक्ति हमेशा ही सफल होता है।  यह बात कहने में अत्यंत सहज लगती है पर इसका व्यवहारिक पहलू यह है कि हमें अपने जीवन में ऐसी दिनचर्या अपनाना चाहिये जो शारीरिक तथा मानसिक शक्ति में वृद्धि करने में सहायक  हो।  जीवन में न केवल शारीरिक शक्ति का होना आवश्यक है बल्कि उसके साथ मनुष्य को मानसिक रूप से भी शक्तिशाली होना चाहिए।
            हमारे अध्यात्मिक दर्शन में ब्रह्म मुहूर्त में उठना जीवन के लिये सबसे ज्यादा उत्तम माना जाता है।  हमारे महान पूर्वजों ने जिस अध्यात्मिक ज्ञान का संचय किया है वह सभी प्रातःकाल उठने को ईश्वर की सबसे बड़ी आराधना माना जाता है। इससे तन और मन में शुद्धता रहती है।  प्रातःकाल का समय धर्म का माना जाता है और इस दौरान योगासन, ध्यान और मंत्रजाप कर स्वयं को अध्यात्मिक रूप से दृढ़ बनाया जाना आवश्यक है। 
अथर्ववेद  में कहा गया है कि 
व्यार्त्या पवमानो वि शक्रः पाप हत्यथा।।
           हिन्दी में भावार्थ- तन और मन में शुद्धता रखने वाला मनुष्य पीड़ाओं से दूर रहता तो पुरुषार्थी दुष्कर्म करने से बचता है।
ओर्पसूर्यमन्यातस्वापाव्युषं जागृततादहमिन्द्र इवारिष्टो अक्षितः।
             हिन्दी में भावार्थ- दूसरे लोग भले ही सूर्योदय तक सोते रहें पर शूरवीर सदृश नाश और क्षय रहित होकर समय पर जागे।
      जब देह और मन में शुद्धता होती तब आदमी स्वयं ही सत्यकर्म के लिये प्रेरित होता है।  पुरुषार्थी मनुष्यों को सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि वह पाप कर्मों पर कभी नहीं विचार करते। आजकल हम समाज में जो अपराध की बढ़ती प्रवृत्ति देख रहे हैं उसके पीछे दो ही प्रकार के लोग जिम्मेदार दिखाई देते हैं। एक तो वह लोग जिनके पास कोई काम नहीं है यानि वह बेकार है दूसरे वह जिनको काम करने की आवश्यकता ही नहीं है यानि वह निकम्मे हैं।  यह बेकार और निकम्मे ही मिलकर अपराध करते हैं।  हम जब जब सभ्य समाज की बात करते हैं तो वह पुरुषार्थी लोगों के कंधों पर ही निर्भर करता है। हृदय में शुद्ध और देह में दृढ़ता होने पर कोई भी लक्ष्य आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

Saturday, October 22, 2011

मनुस्मृति-अतिथि सत्कार पवित्र मनुष्य को प्रदान करना चाहिए (atithi satkar pavitra manushya ka pradan karna chahiye-manu smriti)

       हमारे देश में संस्कार तथा संस्कृति के नाम पर भी कई नारे प्रचलित हो गये हैं। इनमें एक है ‘अतिथि देवो भव‘। इसको लेकर बहुत सारी बातें कही जाती हैं जबकि हमारा अध्यात्मिक दर्शन कहता है कि मेहमान की पात्रता तभी स्वीकार्य है जब वह पवित्र मनुष्य हो। ऐसा नहीं है कि हर किसी को घर के दरवाजे पर आने पर मेहमान का दर्जा देकर उसका स्वागत किया जाये। दरअसल इस तरह के नारे अध्यात्मिक ग्रंथों में वर्णित तत्वज्ञान के अभाव में ही समाज में प्रचलित हो गये हैं। कुछ लोग तो यह कहते हैं कि अतिथि सत्कार धर्म का सर्वोच्च रूप है और एक तरह से यज्ञ करने से अधिक श्रेष्ठ है। यह सत्य है कि अगर सुपात्र मनुष्य का अतिथि रूप में सत्कार करना एक तरह यज्ञ ही है पर इसमें पवित्रता का विचार भी होना चाहिए। ज्ञानी लोग हर क्रिया को यज्ञ की तरह मानते हैं। जिस तरह यज्ञ पवित्र स्थान पर पवित्र वस्तुओं से किया जाता है उसी तरह अतिथि सत्कार का धर्म भी पवित्र व्यक्ति को प्रदान किया जाना चाहिए।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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ज्ञानेनैवापरे विप्राः यजन्ते तैमंखेःसदा।
ज्ञानमूलां क्रियामेषां पश्चन्तो ज्ञानचक्षुषा।
            ‘‘तत्वाज्ञानी सभी क्रियाओं को अपने ज्ञान नेत्रों से देखते हुए उसके प्रेरक तत्वों को पहचानते हैं। इस तरह वह अपने ज्ञान से ही यज्ञानुष्ठान करना सबसे महत्वपूर्ण मानते है।
पाषण्डिनो विकर्मस्थान्बैडाव्रतिकांछठान्।
हैंतुकान्वकवृत्तश्चि वांड्मात्रेण्णापि नार्चयेत्।।
          ‘‘पांखडी, दृष्ट, ठग, दूसरों को दुःख पहुंचाने वाला तथा धर्म ग्रंथों में अरुचि रखने भले ही सज्जनता का व्यवहार करे पर उसे कभी मेहमान नहीं बनाना चाहिए। इतना ही नहीं उसका वाणी से भी कभी स्वागत नहीं करना चाहिए।’’
         हमारे देश में पहले शिक्षा के अभाव में लोगों को अध्यात्मिक ग्रंथों का ज्ञान नहीं था तो अब आधुनिक शिक्षा ने उनको एक तरह से विरक्त ही कर दिया गया है। इसलिये चालाक लोग दूसरों को अतिथि सत्कार का धर्म निभाने की राय देते हैं और स्वयं मजे करते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि तत्वज्ञान को समझा जाये। अपनी हर क्रिया को अपने ज्ञान चक्षुओं से देखते हुए यज्ञ होने की अनुभूति की जाये। जीवन में आनंद लेने का यह भी एक तरीका है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
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