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Saturday, February 6, 2016

भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में भेदभाव की दृष्टि रखना अज्ञान का प्रमाण.हिन्दी चिंत्तन लेख (HIndiReligion Messge Based on ShriMadBhagwatGeeta)

भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में भेदभाव की दृष्टि रखना अज्ञान का प्रमाण.हिन्दी चिंत्तन लेख
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              जब धर्म के विषय पर बहस हो और कोई संत वेशधारी उत्तेजित होकर बोलने लगे तो समझ लेना चाहिये कि वह घनघोर अज्ञान के अंधेरे में जीवन व्यतीत कर रहा है। शनिशिंगणापुर विषय पर प्रचार माध्यमों में जमकर बहस चलायी जा रही है। तय बात है कि यह  टीव चैनलों में विज्ञापनों का समय पास करने के लिये हो रहा है। इस बहस में अनेक कथित संत अपनी बात कहने आ रहे है। कथित संत शब्द हमने इसलिये लिखा है क्योंकि वह सन्यासी की वेशभूषा में होते हैं और उसकी गीता में जो ज्ञानी  व्याख्या है वह उसके ठीक विपरीत उनका आचरण होता है। अनेक बार उनकी वाणी से क्रोध से भरे शब्द निकलते हैं जैसे कि किसी के तर्क से उनका सब कुछ छिना जा रहा है। इनमें अनेक अधिक से अधिक कैमरा अपनी तरफ केंद्रिता होता देखने की ऐसी लालच होती है जिससे उनकी वाणी दिग्भ्रमित हो जाती है।
  धर्म की रक्षा में जीवन दाव पर लगाने वाले  यह कथित सन्त सन्यासी कभी अपनी वाणी से स्थिरप्रज्ञ नहीं दिखते जो कि श्रीमद्भागवतगीता के अनुसार ज्ञानी होने का प्रमाण है। भारतीय धर्म की पहचान उसके अध्यात्मिक ज्ञान से है जबकि कथित संत सन्यास कर्मकांडों के प्रचार को ही धार्मिकता का आधार मानते हैं।  श्रीगीता के अनुसार द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ बताया गया है जबकि धर्म के कथित पेशेवर प्रचारक कर्मकांडों से स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताते हैं कि उनको दान दक्षिणा मिल सके। श्रीमद्भागवत गीता में भक्त तथा भक्ति के तीन प्रकार बताये गये हैं इसलिये ज्ञान साधक समाज में भिन्नता को उसी दृष्टि से देखते हैं।  किसी भक्त की भक्ति के प्रकार पर प्रतिकूल टिप्पणी करना ज्ञानसाधक वर्जित समझते हैं।  महत्वपूर्ण बात यह कि श्रीगीता में यह स्पष्ट किया गया है कि जो भी मनुष्य साधना करेगा वह सुखी रहेगा। जातिए भाषा अथवा लिंग के आधार पर  भिन्नता देखना भक्ति के विषय में अस्वीकार कर दिया गया है।  ऐसे में कर्मकांड से जुड़ी किसी परंपरा में मनुष्य में किसी आधार पर भिन्नता देखी जाती है तो तय बात है कि वह श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित समानता के सिद्धांत के विरुद्ध है। ऐसे में अगर कोई सन्यासी या संत शनि शिंगणापुर में नारी प्रवेश का विरोध करता है तो उसके ज्ञान पर प्रश्न जरूर उठेंगे। वैसे संत वेदों व शास्त्रों की बात कर रहे हैं पर उन्हें यह ध्यान रखना चाहिये कि मथुरा मेें जन्मेए वृंदावन में पले फिर द्वारका में जाकर बसे महामना भगवान श्रीकृष्ण ने सारा ज्ञान समेटकर श्रीमद्भागवत गीता में रख दिया था। अगर संत भेदरहित दृष्टि से बोलकर अपना महत्व प्रमाणित करना चाहते हैं तो उन्हें यह याद रखना चाहिये कि इस देश में कर्मयोगियों की संख्या उनसे ज्यादा है जो उनकी बात को काट सकते हैं।

                  जब धर्म के विषय पर बहस हो और कोई संत वेशधारी उत्तेजित होकर बोलने लगे तो समझ लेना चाहिये कि वह घनघोर अज्ञान के अंधेरे में जीवन व्यतीत कर रहा है। शनिशिंगणापुर विषय पर प्रचार माध्यमों में जमकर बहस चलायी जा रही है। तय बात है कि यह  टीव चैनलों में विज्ञापनों का समय पास करने के लिये हो रहा है। इस बहस में अनेक कथित संत अपनी बात कहने आ रहे है। कथित संत शब्द हमने इसलिये लिखा है क्योंकि वह सन्यासी की वेशभूषा में होते हैं और उसकी गीता में जो ज्ञानी  व्याख्या है वह उसके ठीक विपरीत उनका आचरण होता है। अनेक बार उनकी वाणी से क्रोध से भरे शब्द निकलते हैं जैसे कि किसी के तर्क से उनका सब कुछ छिना जा रहा है। इनमें अनेक अधिक से अधिक कैमरा अपनी तरफ केंद्रिता होता देखने की ऐसी लालच होती है जिससे उनकी वाणी दिग्भ्रमित हो जाती है।
                   
धर्म की रक्षा में जीवन दाव पर लगाने वाले  यह कथित सन्त सन्यासी कभी अपनी वाणी से स्थिरप्रज्ञ नहीं दिखते जो कि श्रीमद्भागवतगीता के अनुसार ज्ञानी होने का प्रमाण है। भारतीय धर्म की पहचान उसके अध्यात्मिक ज्ञान से है जबकि कथित संत सन्यास कर्मकांडों के प्रचार को ही धार्मिकता का आधार मानते हैं।  श्रीगीता के अनुसार द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ बताया गया है जबकि धर्म के कथित पेशेवर प्रचारक कर्मकांडों से स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताते हैं कि उनको दान दक्षिणा मिल सके। श्रीमद्भागवत गीता में भक्त तथा भक्ति के तीन प्रकार बताये गये हैं इसलिये ज्ञान साधक समाज में भिन्नता को उसी दृष्टि से देखते हैं।  किसी भक्त की भक्ति के प्रकार पर प्रतिकूल टिप्पणी करना ज्ञानसाधक वर्जित समझते हैं।  महत्वपूर्ण बात यह कि श्रीगीता में यह स्पष्ट किया गया है कि जो भी मनुष्य साधना करेगा वह सुखी रहेगा। जातिए भाषा अथवा लिंग के आधार पर  भिन्नता देखना भक्ति के विषय में अस्वीकार कर दिया गया है।  ऐसे में कर्मकांड से जुड़ी किसी परंपरा में मनुष्य में किसी आधार पर भिन्नता देखी जाती है तो तय बात है कि वह श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित समानता के सिद्धांत के विरुद्ध है। ऐसे में अगर कोई सन्यासी या संत शनि शिंगणापुर में नारी प्रवेश का विरोध करता है तो उसके ज्ञान पर प्रश्न जरूर उठेंगे। वैसे संत वेदों व शास्त्रों की बात कर रहे हैं पर उन्हें यह ध्यान रखना चाहिये कि मथुरा मेें जन्मेए वृंदावन में पले फिर द्वारका में जाकर बसे महामना भगवान श्रीकृष्ण ने सारा ज्ञान समेटकर श्रीमद्भागवत गीता में रख दिया था। अगर संत भेदरहित दृष्टि से बोलकर अपना महत्व प्रमाणित करना चाहते हैं तो उन्हें यह याद रखना चाहिये कि इस देश में कर्मयोगियों की संख्या उनसे ज्यादा है जो उनकी बात को काट सकते हैं।

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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर 
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Saturday, July 30, 2011

संतकबीर दर्शन-सत्संगति से मन की कल्पना और कलह दूर होती है

        यह सही है कि हमारे अध्यात्मिक दर्शन में हर तरह की भक्ति को स्वीकार किया जाता है पर उसमें कहींे भी यह नहीं कहा गया है कि कोई जगह सिद्ध है या कहीं जाने से अमुक लाभ होता है। साकार और निराकार भक्ति दोनों को हृदय से करने पर मनुष्य को लाभ होता है पर यह तभी संभव है जब वह निष्काम भाव से की जाये।
         हमारे अध्यात्मिक दर्शन में निराकार और निष्काम भक्ति की धारण को प्रतिपादित किया गया है पर यह केवल ज्ञानी लोगों के लिये ही संभव है। सामान्य लोगों के लिये यह कठिन है और शायद इसलिये मूर्तिपूजा के माध्यम से उसे ध्यान लगाने की कोशिश को मान्यता दी गयी। यह अच्छी बात है पर इससे हुआ यह कि कुछ लोगों ने अपनी व्यवसायिक सुविधा के लिये मूर्तियों मंदिरों और पहाड़ों की सिद्धि का प्रचार किया। जिससे देश में अनेक तीर्थकेंद्र बन गये और वहां जाना ही धर्म का निर्वाह घोषित किया गया। जैसे जैसे समाज भौतिकता के विकास में उलझा उसका विवेक सिकुड़ता गया। मगर मन तो मन है वह आदमी को नचाता है। जिनके पास धन है वह उसे खर्च कर सिद्ध स्थानों पर पर्यटन की दृष्टि से जाते हैं तो जिनके पास समय है वह भी कष्ट उठाकर वहां अपनी आस्थाओं निभाने जाते हैं। एक तरह से यह मान लिया गया है कि भक्ति रूपी यह मनोरंजन ही प्रसन्न रहने का साधन है। ज्ञान चर्चा और सत्संग को तो भक्ति का रूप ही नहीं माना जाता है जबकि मन और विचारों की शुद्धि के लिये यही आवश्यक है।
कबीरदास जी कहते हैं कि
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कबीर कलह रु कल्पना, सत्संगति से जाय।
दुख वासो भागा फिरै, सुख में रहै समाय।।
          मन की सभी प्रकार की कलह और कल्पनायें सत्संगति से परे होती हैं। ऐसे में दुख भी उससे भागा फिरता है और आदमी का मन सुखी रहता है।’’
मथुरा काशी द्वारिका हरिद्धार जगनाथ।
साधु संगति हरिभजन बिन, कछु न आवै हाथ।।
           ‘‘चाहे मथुरा हो या काशी, द्वारिका, हरिद्वार और जगन्नाथ हो उसे घूमने से कुछ हाथ नहीं आता। इससे अच्छा तो साधु संगति और हरिभजन में लिप्त होने से मन वैसे ही प्रसन्न होता है।’’
           जिन महापुरुषों ने मूर्तिपूजा को मान्यता दी होगी उनका उद्देश्य यही रहा होगा कि अभ्यास करते हुए कालंातर में लोग निराकार की कल्पना करने लगेंगे पर हुआ यह कि लोग केवल से ही भक्ति समझने लगे हैं। परिणाम यह है कि हमारे देश में भक्तिभाव के नाम पर धार्मिक स्थानों पर भारी भीड़ लगती है पर जब उसका प्रभाव देखते हैं तो आचरण में निरंतर आती गिरावट निराश करती है। लोग भक्ति करते हैं पर तनाव मुक्त नहंी दिखते। इसका मतलब साफ है कि सत्संग और ज्ञान चर्चा से जब तक विचार और मन की शुद्ध नहीं होगी तब मनुष्य शांति नहीं पा सकता।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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