यह सही है कि हमारे अध्यात्मिक दर्शन में हर तरह की भक्ति को स्वीकार किया जाता है पर उसमें कहींे भी यह नहीं कहा गया है कि कोई जगह सिद्ध है या कहीं जाने से अमुक लाभ होता है। साकार और निराकार भक्ति दोनों को हृदय से करने पर मनुष्य को लाभ होता है पर यह तभी संभव है जब वह निष्काम भाव से की जाये।
हमारे अध्यात्मिक दर्शन में निराकार और निष्काम भक्ति की धारण को प्रतिपादित किया गया है पर यह केवल ज्ञानी लोगों के लिये ही संभव है। सामान्य लोगों के लिये यह कठिन है और शायद इसलिये मूर्तिपूजा के माध्यम से उसे ध्यान लगाने की कोशिश को मान्यता दी गयी। यह अच्छी बात है पर इससे हुआ यह कि कुछ लोगों ने अपनी व्यवसायिक सुविधा के लिये मूर्तियों मंदिरों और पहाड़ों की सिद्धि का प्रचार किया। जिससे देश में अनेक तीर्थकेंद्र बन गये और वहां जाना ही धर्म का निर्वाह घोषित किया गया। जैसे जैसे समाज भौतिकता के विकास में उलझा उसका विवेक सिकुड़ता गया। मगर मन तो मन है वह आदमी को नचाता है। जिनके पास धन है वह उसे खर्च कर सिद्ध स्थानों पर पर्यटन की दृष्टि से जाते हैं तो जिनके पास समय है वह भी कष्ट उठाकर वहां अपनी आस्थाओं निभाने जाते हैं। एक तरह से यह मान लिया गया है कि भक्ति रूपी यह मनोरंजन ही प्रसन्न रहने का साधन है। ज्ञान चर्चा और सत्संग को तो भक्ति का रूप ही नहीं माना जाता है जबकि मन और विचारों की शुद्धि के लिये यही आवश्यक है।
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हमारे अध्यात्मिक दर्शन में निराकार और निष्काम भक्ति की धारण को प्रतिपादित किया गया है पर यह केवल ज्ञानी लोगों के लिये ही संभव है। सामान्य लोगों के लिये यह कठिन है और शायद इसलिये मूर्तिपूजा के माध्यम से उसे ध्यान लगाने की कोशिश को मान्यता दी गयी। यह अच्छी बात है पर इससे हुआ यह कि कुछ लोगों ने अपनी व्यवसायिक सुविधा के लिये मूर्तियों मंदिरों और पहाड़ों की सिद्धि का प्रचार किया। जिससे देश में अनेक तीर्थकेंद्र बन गये और वहां जाना ही धर्म का निर्वाह घोषित किया गया। जैसे जैसे समाज भौतिकता के विकास में उलझा उसका विवेक सिकुड़ता गया। मगर मन तो मन है वह आदमी को नचाता है। जिनके पास धन है वह उसे खर्च कर सिद्ध स्थानों पर पर्यटन की दृष्टि से जाते हैं तो जिनके पास समय है वह भी कष्ट उठाकर वहां अपनी आस्थाओं निभाने जाते हैं। एक तरह से यह मान लिया गया है कि भक्ति रूपी यह मनोरंजन ही प्रसन्न रहने का साधन है। ज्ञान चर्चा और सत्संग को तो भक्ति का रूप ही नहीं माना जाता है जबकि मन और विचारों की शुद्धि के लिये यही आवश्यक है।
कबीरदास जी कहते हैं कि
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कबीर कलह रु कल्पना, सत्संगति से जाय।
दुख वासो भागा फिरै, सुख में रहै समाय।।
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कबीर कलह रु कल्पना, सत्संगति से जाय।
दुख वासो भागा फिरै, सुख में रहै समाय।।
मन की सभी प्रकार की कलह और कल्पनायें सत्संगति से परे होती हैं। ऐसे में दुख भी उससे भागा फिरता है और आदमी का मन सुखी रहता है।’’
मथुरा काशी द्वारिका हरिद्धार जगनाथ।
साधु संगति हरिभजन बिन, कछु न आवै हाथ।।
साधु संगति हरिभजन बिन, कछु न आवै हाथ।।
‘‘चाहे मथुरा हो या काशी, द्वारिका, हरिद्वार और जगन्नाथ हो उसे घूमने से कुछ हाथ नहीं आता। इससे अच्छा तो साधु संगति और हरिभजन में लिप्त होने से मन वैसे ही प्रसन्न होता है।’’
जिन महापुरुषों ने मूर्तिपूजा को मान्यता दी होगी उनका उद्देश्य यही रहा होगा कि अभ्यास करते हुए कालंातर में लोग निराकार की कल्पना करने लगेंगे पर हुआ यह कि लोग केवल से ही भक्ति समझने लगे हैं। परिणाम यह है कि हमारे देश में भक्तिभाव के नाम पर धार्मिक स्थानों पर भारी भीड़ लगती है पर जब उसका प्रभाव देखते हैं तो आचरण में निरंतर आती गिरावट निराश करती है। लोग भक्ति करते हैं पर तनाव मुक्त नहंी दिखते। इसका मतलब साफ है कि सत्संग और ज्ञान चर्चा से जब तक विचार और मन की शुद्ध नहीं होगी तब मनुष्य शांति नहीं पा सकता। संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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