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Wednesday, August 3, 2011

चाणक्य नीति-अभ्यास न होने से अर्जित ज्ञान भी विष हो जाता है (chankya neeti-abhyas n ho to gyan vish saman)

                भारतीय शिक्षा पद्धति का यह सबसे बड़ा दोष यह है कि वह व्यवहार में कहीं काम नहीं आती। हमारे यहां बच्चों को इतिहास, भूगोल, सामान्य विज्ञान, गणित, अर्थशास्त्र, राजनीतिक शास्त्र तथा साहित्य पढ़ाया जाता है। पढ़ने वालों का एकमात्र उद्देश्य शिक्षा प्रमाणपत्र प्राप्त करना होता है ताकि कहीं उनको नौकरी आदि मिल सके। जिनको मिल गयी उनके लिये काम के दौरान उस ज्ञान का अभ्यास नहीं होता जिससे उन्होंने शिक्षा प्राप्त की है। इससे उनके मन में हमेशा यह कुंठा रहती है कि जो उन्होंने पढ़ा है उसका उपयोग नहीं हो रहा। धीरे धीरे यह कुंठा तनाव का कारण बन जाती है। जिनको नौकरी नहीं मिली वह अन्य कोई श्रमप्रधान काम नहीं कर सकते क्योंकि बचपन से ही उसकी आदत नहीं रही। ऐसे शिक्षित बेरोजगार बनकर समाज ही नहीं परिवार की नज़रों में भी वह लोग खटकते हैं। समय के अनुसार हम देख रहे हैं कि देश में श्रमप्रधान काम करने वालों की संख्या कम होने के साथ ही शैक्षणिक प्रमाणपत्र लेकर नौकरी मांगने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है।
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि
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अनभ्यासं विषं शास्वमजीर्णे भोजनं विषम्।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्वय तरुणी विषम्।।
          ‘‘जिस तरह अपच रोग होने से स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन भी विष हो जाता है उसी तरह अभ्यास के अभाव में अर्जित ज्ञान भी विष हो जाता है। दरिद्र आदमी के लिये गोष्ठियां और वृद्ध के लिये तरुणी भी विष समान हो जाती है’’
आलस्योपगता विद्या परहस्तगतं धनम्।
अल्पबीजं इसं क्षेत्रं हतं सैन्यमनायकम्।।
             ‘‘आलस्य मनुष्य का स्वभाव है। इसी दोष के कारण उसके प्रयासों से अर्जित विद्या भी अभ्यास न होने से नष्ट हो जाती है। दूसरे के हाथ में गया धन कभी वापस नहीं आता। बीज अच्छा न होने पर फसल भी वैसे ही होती है।’’
        कहने का अभिप्राय यह है कि आज की शिक्षा पद्धति एकदम बेकार है। देखा जाये तो यह शिक्षा प्रमाण पत्र प्राप्त कर गुलामी करने के लिये ही चलायी गयी है। भारतीय अध्यात्म ज्ञान का इसमें कोई स्थान नहीं है। जिससे मनुष्य में व्यक्तित्व, चरित्र, विचार और आचरण का निर्माण होता है उस ज्ञान का वर्तमान शिक्षा पद्धति में कोई स्थान नहीं है। यही कारण है कि देश में भ्रष्टाचार, अपराध तथा हिंसा की घटनायें आम हो गयी हैं। देखा जाये तो हमारे मनीषियों ने हमारे लिये महान ज्ञान का सृजन किया और उसे हम जानते भी है पर न स्वयं अभ्यास करते हैं न दूसरों को करने देते हैं। कई बार तो कहीं ज्ञान की बातें सुनते हैं तो वह विष की तरह लगती हैं क्योंकि कहीं न कहीं हमारे अंदर कुंठा होती है कि हम उस मार्ग पर नहीं चल रहे जहां सत्य स्थित है। अभ्यास नहीं है तो अध्यात्मिक ज्ञान पर चलते नहीं और इस वजह से जो कुंठा है वह हमारे अंदर मानसिक द्वंद्व को जन्म देती है।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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