भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में भेदभाव की दृष्टि
रखना अज्ञान का प्रमाण.हिन्दी चिंत्तन
लेख
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जब धर्म के विषय पर बहस हो और कोई संत वेशधारी उत्तेजित होकर बोलने लगे तो समझ लेना चाहिये कि वह घनघोर अज्ञान के अंधेरे में जीवन व्यतीत कर रहा है। शनिशिंगणापुर विषय पर प्रचार माध्यमों में जमकर बहस चलायी जा रही है। तय बात है कि यह टीव चैनलों में विज्ञापनों का समय पास करने के लिये हो रहा है। इस बहस में अनेक कथित संत अपनी बात कहने आ रहे है। कथित संत शब्द हमने इसलिये लिखा है क्योंकि वह सन्यासी की वेशभूषा में होते हैं और उसकी गीता में जो ज्ञानी व्याख्या है वह उसके ठीक विपरीत उनका आचरण होता है। अनेक बार उनकी वाणी से क्रोध से भरे शब्द निकलते हैं जैसे कि किसी के तर्क से उनका सब कुछ छिना जा रहा है। इनमें अनेक अधिक से अधिक कैमरा अपनी तरफ केंद्रिता होता देखने की ऐसी लालच होती है जिससे उनकी वाणी दिग्भ्रमित हो जाती है।
धर्म की रक्षा में जीवन दाव पर लगाने वाले यह कथित सन्त सन्यासी कभी अपनी वाणी से स्थिरप्रज्ञ नहीं दिखते जो कि श्रीमद्भागवतगीता के अनुसार ज्ञानी होने का प्रमाण है। भारतीय धर्म की पहचान उसके अध्यात्मिक ज्ञान से है जबकि कथित संत सन्यास कर्मकांडों के प्रचार को ही धार्मिकता का आधार मानते हैं। श्रीगीता के अनुसार द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ बताया गया है जबकि धर्म के कथित पेशेवर प्रचारक कर्मकांडों से स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताते हैं कि उनको दान दक्षिणा मिल सके। श्रीमद्भागवत गीता में भक्त तथा भक्ति के तीन प्रकार बताये गये हैं इसलिये ज्ञान साधक समाज में भिन्नता को उसी दृष्टि से देखते हैं। किसी भक्त की भक्ति के प्रकार पर प्रतिकूल टिप्पणी करना ज्ञानसाधक वर्जित समझते हैं। महत्वपूर्ण बात यह कि श्रीगीता में यह स्पष्ट किया गया है कि जो भी मनुष्य साधना करेगा वह सुखी रहेगा। जातिए भाषा अथवा लिंग के आधार पर भिन्नता देखना भक्ति के विषय में अस्वीकार कर दिया गया है। ऐसे में कर्मकांड से जुड़ी किसी परंपरा में मनुष्य में किसी आधार पर भिन्नता देखी जाती है तो तय बात है कि वह श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित समानता के सिद्धांत के विरुद्ध है। ऐसे में अगर कोई सन्यासी या संत शनि शिंगणापुर में नारी प्रवेश का विरोध करता है तो उसके ज्ञान पर प्रश्न जरूर उठेंगे। वैसे संत वेदों व शास्त्रों की बात कर रहे हैं पर उन्हें यह ध्यान रखना चाहिये कि मथुरा मेें जन्मेए वृंदावन में पले फिर द्वारका में जाकर बसे महामना भगवान श्रीकृष्ण ने सारा ज्ञान समेटकर श्रीमद्भागवत गीता में रख दिया था। अगर संत भेदरहित दृष्टि से बोलकर अपना महत्व प्रमाणित करना चाहते हैं तो उन्हें यह याद रखना चाहिये कि इस देश में कर्मयोगियों की संख्या उनसे ज्यादा है जो उनकी बात को काट सकते हैं।
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जब धर्म के विषय पर बहस हो और कोई संत वेशधारी उत्तेजित होकर बोलने लगे तो समझ लेना चाहिये कि वह घनघोर अज्ञान के अंधेरे में जीवन व्यतीत कर रहा है। शनिशिंगणापुर विषय पर प्रचार माध्यमों में जमकर बहस चलायी जा रही है। तय बात है कि यह टीव चैनलों में विज्ञापनों का समय पास करने के लिये हो रहा है। इस बहस में अनेक कथित संत अपनी बात कहने आ रहे है। कथित संत शब्द हमने इसलिये लिखा है क्योंकि वह सन्यासी की वेशभूषा में होते हैं और उसकी गीता में जो ज्ञानी व्याख्या है वह उसके ठीक विपरीत उनका आचरण होता है। अनेक बार उनकी वाणी से क्रोध से भरे शब्द निकलते हैं जैसे कि किसी के तर्क से उनका सब कुछ छिना जा रहा है। इनमें अनेक अधिक से अधिक कैमरा अपनी तरफ केंद्रिता होता देखने की ऐसी लालच होती है जिससे उनकी वाणी दिग्भ्रमित हो जाती है।
धर्म की रक्षा में जीवन दाव पर लगाने वाले यह कथित सन्त सन्यासी कभी अपनी वाणी से स्थिरप्रज्ञ नहीं दिखते जो कि श्रीमद्भागवतगीता के अनुसार ज्ञानी होने का प्रमाण है। भारतीय धर्म की पहचान उसके अध्यात्मिक ज्ञान से है जबकि कथित संत सन्यास कर्मकांडों के प्रचार को ही धार्मिकता का आधार मानते हैं। श्रीगीता के अनुसार द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ बताया गया है जबकि धर्म के कथित पेशेवर प्रचारक कर्मकांडों से स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताते हैं कि उनको दान दक्षिणा मिल सके। श्रीमद्भागवत गीता में भक्त तथा भक्ति के तीन प्रकार बताये गये हैं इसलिये ज्ञान साधक समाज में भिन्नता को उसी दृष्टि से देखते हैं। किसी भक्त की भक्ति के प्रकार पर प्रतिकूल टिप्पणी करना ज्ञानसाधक वर्जित समझते हैं। महत्वपूर्ण बात यह कि श्रीगीता में यह स्पष्ट किया गया है कि जो भी मनुष्य साधना करेगा वह सुखी रहेगा। जातिए भाषा अथवा लिंग के आधार पर भिन्नता देखना भक्ति के विषय में अस्वीकार कर दिया गया है। ऐसे में कर्मकांड से जुड़ी किसी परंपरा में मनुष्य में किसी आधार पर भिन्नता देखी जाती है तो तय बात है कि वह श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित समानता के सिद्धांत के विरुद्ध है। ऐसे में अगर कोई सन्यासी या संत शनि शिंगणापुर में नारी प्रवेश का विरोध करता है तो उसके ज्ञान पर प्रश्न जरूर उठेंगे। वैसे संत वेदों व शास्त्रों की बात कर रहे हैं पर उन्हें यह ध्यान रखना चाहिये कि मथुरा मेें जन्मेए वृंदावन में पले फिर द्वारका में जाकर बसे महामना भगवान श्रीकृष्ण ने सारा ज्ञान समेटकर श्रीमद्भागवत गीता में रख दिया था। अगर संत भेदरहित दृष्टि से बोलकर अपना महत्व प्रमाणित करना चाहते हैं तो उन्हें यह याद रखना चाहिये कि इस देश में कर्मयोगियों की संख्या उनसे ज्यादा है जो उनकी बात को काट सकते हैं।
जब धर्म के विषय
पर बहस हो और कोई संत वेशधारी उत्तेजित होकर बोलने लगे तो समझ लेना चाहिये कि वह
घनघोर अज्ञान के अंधेरे में जीवन व्यतीत कर रहा है। शनिशिंगणापुर विषय पर प्रचार
माध्यमों में जमकर बहस चलायी जा रही है। तय बात है कि यह
टीव चैनलों में
विज्ञापनों का समय पास करने के लिये हो रहा है। इस बहस में अनेक कथित संत अपनी बात
कहने आ रहे है। कथित संत शब्द हमने इसलिये लिखा है क्योंकि वह सन्यासी की वेशभूषा
में होते हैं और उसकी गीता में जो ज्ञानी व्याख्या है वह उसके ठीक विपरीत उनका आचरण होता
है। अनेक बार उनकी वाणी से क्रोध से भरे शब्द निकलते हैं जैसे कि किसी के तर्क से
उनका सब कुछ छिना जा रहा है। इनमें अनेक अधिक से अधिक कैमरा अपनी तरफ केंद्रिता
होता देखने की ऐसी लालच होती है जिससे उनकी वाणी दिग्भ्रमित हो जाती है।
धर्म की रक्षा में जीवन दाव पर लगाने वाले यह कथित सन्त सन्यासी कभी अपनी वाणी से स्थिरप्रज्ञ नहीं दिखते जो कि श्रीमद्भागवतगीता के अनुसार ज्ञानी होने का प्रमाण है। भारतीय धर्म की पहचान उसके अध्यात्मिक ज्ञान से है जबकि कथित संत सन्यास कर्मकांडों के प्रचार को ही धार्मिकता का आधार मानते हैं। श्रीगीता के अनुसार द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ बताया गया है जबकि धर्म के कथित पेशेवर प्रचारक कर्मकांडों से स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताते हैं कि उनको दान दक्षिणा मिल सके। श्रीमद्भागवत गीता में भक्त तथा भक्ति के तीन प्रकार बताये गये हैं इसलिये ज्ञान साधक समाज में भिन्नता को उसी दृष्टि से देखते हैं। किसी भक्त की भक्ति के प्रकार पर प्रतिकूल टिप्पणी करना ज्ञानसाधक वर्जित समझते हैं। महत्वपूर्ण बात यह कि श्रीगीता में यह स्पष्ट किया गया है कि जो भी मनुष्य साधना करेगा वह सुखी रहेगा। जातिए भाषा अथवा लिंग के आधार पर भिन्नता देखना भक्ति के विषय में अस्वीकार कर दिया गया है। ऐसे में कर्मकांड से जुड़ी किसी परंपरा में मनुष्य में किसी आधार पर भिन्नता देखी जाती है तो तय बात है कि वह श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित समानता के सिद्धांत के विरुद्ध है। ऐसे में अगर कोई सन्यासी या संत शनि शिंगणापुर में नारी प्रवेश का विरोध करता है तो उसके ज्ञान पर प्रश्न जरूर उठेंगे। वैसे संत वेदों व शास्त्रों की बात कर रहे हैं पर उन्हें यह ध्यान रखना चाहिये कि मथुरा मेें जन्मेए वृंदावन में पले फिर द्वारका में जाकर बसे महामना भगवान श्रीकृष्ण ने सारा ज्ञान समेटकर श्रीमद्भागवत गीता में रख दिया था। अगर संत भेदरहित दृष्टि से बोलकर अपना महत्व प्रमाणित करना चाहते हैं तो उन्हें यह याद रखना चाहिये कि इस देश में कर्मयोगियों की संख्या उनसे ज्यादा है जो उनकी बात को काट सकते हैं।
धर्म की रक्षा में जीवन दाव पर लगाने वाले यह कथित सन्त सन्यासी कभी अपनी वाणी से स्थिरप्रज्ञ नहीं दिखते जो कि श्रीमद्भागवतगीता के अनुसार ज्ञानी होने का प्रमाण है। भारतीय धर्म की पहचान उसके अध्यात्मिक ज्ञान से है जबकि कथित संत सन्यास कर्मकांडों के प्रचार को ही धार्मिकता का आधार मानते हैं। श्रीगीता के अनुसार द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञानयज्ञ बताया गया है जबकि धर्म के कथित पेशेवर प्रचारक कर्मकांडों से स्वर्ग तथा मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताते हैं कि उनको दान दक्षिणा मिल सके। श्रीमद्भागवत गीता में भक्त तथा भक्ति के तीन प्रकार बताये गये हैं इसलिये ज्ञान साधक समाज में भिन्नता को उसी दृष्टि से देखते हैं। किसी भक्त की भक्ति के प्रकार पर प्रतिकूल टिप्पणी करना ज्ञानसाधक वर्जित समझते हैं। महत्वपूर्ण बात यह कि श्रीगीता में यह स्पष्ट किया गया है कि जो भी मनुष्य साधना करेगा वह सुखी रहेगा। जातिए भाषा अथवा लिंग के आधार पर भिन्नता देखना भक्ति के विषय में अस्वीकार कर दिया गया है। ऐसे में कर्मकांड से जुड़ी किसी परंपरा में मनुष्य में किसी आधार पर भिन्नता देखी जाती है तो तय बात है कि वह श्रीमद्भागवतगीता में वर्णित समानता के सिद्धांत के विरुद्ध है। ऐसे में अगर कोई सन्यासी या संत शनि शिंगणापुर में नारी प्रवेश का विरोध करता है तो उसके ज्ञान पर प्रश्न जरूर उठेंगे। वैसे संत वेदों व शास्त्रों की बात कर रहे हैं पर उन्हें यह ध्यान रखना चाहिये कि मथुरा मेें जन्मेए वृंदावन में पले फिर द्वारका में जाकर बसे महामना भगवान श्रीकृष्ण ने सारा ज्ञान समेटकर श्रीमद्भागवत गीता में रख दिया था। अगर संत भेदरहित दृष्टि से बोलकर अपना महत्व प्रमाणित करना चाहते हैं तो उन्हें यह याद रखना चाहिये कि इस देश में कर्मयोगियों की संख्या उनसे ज्यादा है जो उनकी बात को काट सकते हैं।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
यह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
इस लेखक के अन्य ब्लाग/पत्रिकायें जरूर देखें
1.दीपक भारतदीप की हिन्दी पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अनंत शब्दयोग पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की शब्दयोग पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान का पत्रिका
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GOOD One : Jagruk Times
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