मनुष्य के जीवन में धन का होना अनिवार्य है पर उसके लिये उसे पागलों की तरह इधर उधर भागकर अपना समय बर्बाद करना व्यर्थ है। यह सही है कि मनुष्य को अपनी जीविका के लिये प्रयास करना चाहिए। त्रिगुणमयी माया उसे इस बात के लिये बाध्य भी करती है कि वह सांसरिक कर्म में लिप्त होकर समय बिताये। सामान्य मनुष्य माया के जाल में फंसकर केवल उसे इर्दगिर्द चक्कर काटते हुए जीवन बर्बाद कर देते हैं। जिनके पास पैसा अधिक नहीं होता वह अधिक पाने के चक्कर में रहते हैं तो जिनके पास अधिक धन आ गया वह अपने कर्मफल का प्रतीक बताते हुए मदांध हो जाते हैं। खेलती माया है पर आदमी सोचता है कि मैं खेल रहा हूं।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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यद्धात्रा निजभालपट्ट लिखित स्तोकं महद्वा धनं तत्प्राप्तनोति मरुस्थलेऽपि नितरां मेरी ततोनाधिकम्।
तद्धीरो भव वित्तवत्सु कृपणां वृत्ति वुथा सा कृथाः कृपे पश्य पयोनिधावपि घटो गृह्णाति तुल्यं जलम्।।
‘परमात्मा ने जिस मनुष्य के हाथ में थोड़ा धन भी लिखा है तो वही प्राप्त होता है। उससे अधिक की प्राप्ति तो सोने के सुमेरु पर्वत पर जाने से भी नहीं होती। इसलिये जितना मिले उसी में संतोष करते हुए कभी धनिकों में सामने दीन नहीं बनना चाहिए। याद रखो कुंऐं में डालो अथवा समंदर में, जितना घड़ा होता है उतना ही पानी उसमें मिलता है।’’
आदमी के पास जब धन अल्प मात्रा में होता है तो वह धनिकों के मुख की तरफ ताकता है। इतना ही नहीं कोई धनी कुछ देता हो या नहीं वह उसकी तरफ ऐसे देखता है जैसे कि वह समाज का मालिक हो और कभी न कभी उसका भला करेगा। सच बात तो यह है कि अल्प धनिक कभी यह बात नहीं सोचते कि जिन लोगों ने धन कमाया ही इसलिये है कि वह समाज पर राज्य कर सकें वह कभी स्वयं व्यय कर प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि धन कम होगा तो उनकी सम्मान कम होगा या फिर लोग उनको लाचार समझेंगे। जहां तक किसी का भला करने का सवाल है तो समय पर पड़ने पर कुछ लोग अनेपक्षित रूप से मदद कर जातेम हैं और जिनसे अपेक्षा होती है वह मुंह फेर कर चल देते हैं। परोपकार करना एक ऐसी प्रवृत्ति है जो अल्पधनिकों में अधिक पाई जाती है जिनसे समान वर्ग वाले लोग कभी अपेक्षा नहीं करते।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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