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Thursday, December 15, 2011

मनुस्मृति-निर्धन और निम्न जाति का मजाक उड़ाना या अपमानित करना निंदनीय (garib aur nimna jati ka majak ya apaman na kareh-manu smruti in hindi)

            यह कहना कठिन है कि पूरी दुनियां में ही अहंकार के भाव का बोलबाला है या भारतीय समाज में ही यह विकट रूप में दिखाई देता है। अलबत्ता इतना अवश्य है कि भारतीय समाज में अपने अहंकार में आकर दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति कुछ अधिक ही दिखाई देती है। हम जैसे चिंत्तक तो मानते हैं कि भारत का अध्यात्मिक दर्शन इसलिये ही अधिक समृद्ध हुआ है क्योंकि ऋषियों और मुनियों को अपने आसपास अज्ञान में लिपटा एक बृहद समाज मिला जिसे सुधारने के लिये उन्होंने तत्वज्ञान स्थापित किया। इसके लिये उनको एक सहज जमीन मिल गयी जहां वह अनुसंधान, चिंत्तन, मनन और अध्ययन से अध्यात्मिक ज्ञान का सृजन करने के साथ ही उसे सार्वजनिक रूप से व्यक्त भी कर सके। अगर सभी ज्ञानी होते तो आखिर वह किस पर अनुसंधान कर रहस्यों का पता लगाते। उनकी बात कौन सुनता? एक ज्ञानी के रूप में कौन उनको प्रतिष्ठत करता? एक टांग वाले को लंगड़ा, एक आंख वाले को काना, अक्षरज्ञान से रहित को गंवार और और काले रंग वाले को कुरूप कहकर उनका मजाक उड़ाना तो आम बात है। इसके अलावा हर आदमी अपनी जाति को श्रेष्ठ बताकर दूसरी जाति का मजाक उड़ाता है। कभी कभी तो अपने प्रथक जाति वाले को नीच बताकर उसका अपमान किया जाता है। सच बात तो यह है कि कोई जाति नीच नहीं होती अलबत्ता जिनके पास धन, पद और बाहुबल है वह दूसरे की जाति को नीच बताते हैं। यह एक दम अधर्म और अज्ञान का प्रमाण है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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हीनांगनतिरिक्तांगहीनाव्योऽधिकान्।
रूपद्रव्यविहीनांश्च जातिहीनांश्च नाक्षिपेत्।।
           ‘‘ऐसे व्यक्तियों का मजाक  उड़ाना या अपमानित करना निंदनीय है जो किसी अंग से हीन, अधिक अंग वाले, शिक्षा से रहित, आयु में बड़े, कुरूप, निर्धन तथा छोटी जाति या वर्ण के हों।’’
         वैसे मनुमहाराज पर भारतीय समाज में जाति पांति स्थापित करने का आरोप लगता है। ऐसा लगता है कि आधुनिक शिक्षा से ओतप्रोत समाज नहीं चाहता कि भारत की प्राचीन शिक्षा का यहां प्रचार प्रसार हो। यही कारण एक तो वह लोग हैं जो मनुस्मृति के चंद उदाहरण देकर देश में उसे जातिपाति का प्रवर्तक मानते हैं बिना पढ़े ही उनका प्रतिकार यह कहते हुए करते हैं कि भारतीय समाज कभी उनके संदेशों के मार्ग पर नहीं चला। यह हैरानी की बात है कि इन्हीं मनुमहाराज ने अंगहीन, अशिक्षित, बूढ़े, असुंदर तथा जाति के आधार पर किसी के मजाक उड़ाने या अपमानित करने को वर्जित बताया है। लार्ड मैकाले की शिक्षा में रचेबसे आधुनिक बुद्धिजीवी चाहे वह जिस विचारधारा के हों मनुस्मृति का पूर्ण अध्ययन किये बिना ही अपना बौद्धिक ज्ञान बघारते हैं।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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Friday, September 16, 2011

भर्तृहरि नीति शतक-जितना धन भाग्य में है उससे ज्यादा नहीं मिलता (bhritrihari neeti shatak-bhagya aur dhan, luck and money)

            मनुष्य के जीवन में धन का होना अनिवार्य है पर उसके लिये उसे पागलों की तरह इधर उधर भागकर अपना समय बर्बाद करना व्यर्थ है। यह सही है कि मनुष्य को अपनी जीविका के लिये प्रयास करना चाहिए। त्रिगुणमयी माया उसे     इस बात के लिये बाध्य भी करती है कि वह सांसरिक कर्म में लिप्त होकर समय बिताये। सामान्य मनुष्य माया के जाल में फंसकर केवल उसे इर्दगिर्द चक्कर काटते हुए जीवन बर्बाद कर देते हैं। जिनके पास पैसा अधिक नहीं होता वह अधिक पाने के चक्कर में रहते हैं तो जिनके पास अधिक धन आ गया वह अपने कर्मफल का प्रतीक बताते हुए मदांध हो जाते हैं। खेलती माया है पर आदमी सोचता है कि मैं खेल रहा हूं।
भर्तृहरि नीति शतक में कहा गया है कि
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यद्धात्रा निजभालपट्ट लिखित स्तोकं महद्वा धनं तत्प्राप्तनोति मरुस्थलेऽपि नितरां मेरी ततोनाधिकम्।
तद्धीरो भव वित्तवत्सु कृपणां वृत्ति वुथा सा कृथाः कृपे पश्य पयोनिधावपि घटो गृह्णाति तुल्यं जलम्।।
            ‘परमात्मा ने जिस मनुष्य के हाथ में थोड़ा धन भी लिखा है तो वही प्राप्त होता है। उससे अधिक की प्राप्ति तो सोने के सुमेरु पर्वत पर जाने से भी नहीं होती। इसलिये जितना मिले उसी में संतोष करते हुए कभी धनिकों में सामने दीन नहीं बनना चाहिए। याद रखो कुंऐं में डालो अथवा समंदर में, जितना घड़ा होता है उतना ही पानी उसमें मिलता है।’’
             आदमी के पास जब धन अल्प मात्रा में होता है तो वह धनिकों के मुख की तरफ ताकता है। इतना ही नहीं कोई धनी कुछ देता हो या नहीं वह उसकी तरफ ऐसे देखता है जैसे कि वह समाज का मालिक हो और कभी न कभी उसका भला करेगा। सच बात तो यह है कि अल्प धनिक कभी यह बात नहीं सोचते कि जिन लोगों ने धन कमाया ही इसलिये है कि वह समाज पर राज्य कर सकें वह कभी स्वयं व्यय कर प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं करते क्योंकि उनको लगता है कि धन कम होगा तो उनकी सम्मान कम होगा या फिर लोग उनको लाचार समझेंगे। जहां तक किसी का भला करने का सवाल है तो समय पर पड़ने पर कुछ लोग अनेपक्षित रूप से मदद कर जातेम हैं और जिनसे अपेक्षा होती है वह मुंह फेर कर चल देते हैं। परोपकार करना एक ऐसी प्रवृत्ति है जो अल्पधनिकों में अधिक पाई जाती है जिनसे समान वर्ग वाले लोग कभी अपेक्षा नहीं करते।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
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