आरंभगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लघ्वी पुरा वृद्धिमति च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वाद्र्धपराद्र्ध-भिन्ना छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्।।
हिन्दी में भावार्थ- जिस तरह दिन की शुरूआत में छाया बढ़ती हुई जाती है और फिर उत्तरार्द्ध में धीरे-धीरे कम होती जाती है। ठीक उसी तरह सज्जन और दुष्ट की मित्रता होती है।
दुर्जनः परिहर्तवयो विद्ययाऽलङ्कृतोऽपि सन्।
मणिनाः भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकर।।
हिन्दी में भावार्थ- इसका आशय यह है कि कोई दुर्जन व्यक्ति विद्वान भी हो तो उसका साथ छोड़ देना चाहिए। विषधर में मणि होती है पर इससे उससे उसका भयंकर रूप प्रिय नहीं हो जाता।
वर्तमान संदर्भ में सम्पादकीय व्याख्या-सज्जन व्यक्तियों से मित्रता धीरे-धीरे बढ़ती है और स्थाई रहती है। सज्जन लोग अपना स्वार्थ न होने के कारण बहुत शीघ्र मित्रता नहीं करते पर जब वह धीरे-धीरे आपका स्वभाव समझने लगते हैं तो फिर स्थाई मित्र हो जाते हैं-उनकी मित्रता ऐसे ही बढ़ती है जैसे पूर्वाद्ध में सूर्य की छाया बढ़ती जाती है। इसके विपरीत दुर्जन लोग अपना स्वार्थ निकालने के लिए बहुत जल्दी मित्रता करते हैं और उसके होते ही उनकी मित्रता वैसे ही कम होने लगती है जैसे उत्तरार्द्ध में सूर्य का प्रभाव कम होने लगता है। पड़ौस तथा कार्यस्थलों में हमारा संपर्क अनेक ऐसे लोगों से होता है जिनके प्रति हमारे हृदय में क्षणिक आत्मीय भाव पैदा हो जाता है। वह भी हमसे बहुत स्नेह करते हैं पर यह यह संपर्क नियमित संपर्क के कारण मौजूद हैं। उन कारणों के परे होते ही-जैसे पड़ौस छोड़ गये या कार्य का स्थान बदल दिया तो-उनसे मानसिक रूप से दूरी पैदा हो जाती है। इस तरह यह बदलने वाली मित्रता वास्तव में सत्य नहीं होती। मित्र तो वह है जो दैहिक रूप से दूर होते भी हमें स्मरण करता है और हम भी उसे नहीं भूलते। इतना ही नहीं समय पड़ने पर उनसे सहारे का आसरा मिलने की संभावना रहती है। अतः स्थितियों का आंकलन कर ही किसी को मित्र मानकर उससे आशा करना चाहिये। जहां तक हो सके दुष्ट और स्वार्थी लोगों से मित्रता नहीं करना चाहिये जो कि कालांतर में घातक होती है।उसी तरह अपने व्यक्तित्व का भी निर्माण इसी तरह करना चाहिए कि वह दूसरों को प्रिय लगे।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://deepkraj.blogspot.com
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1 comment:
सुन्दर व्यख्या !
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