धरती अम्बर न हता, को पंडित था पास।
कौन मुहूरत थापिया, चांद सूरज आकाश।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि जब यह धरती और आकाश नहीं था तब यहां कोई पंडित नहीं था। बताओ इनको स्थापित करने का मुहूर्त किसने निकाला होगा?
ब्राह्ण गुरु है जगत का, संतन के गुरु नाहिं
अरुझि परुझि के मरि गये, चारौ बेदों मांहिं।।
ब्राह्म्ण जगत का गुरु हो सकता है पर किसी संत का नहीं। ज्ञानी ब्राह्म्ण लोग वेदों पर वाद विवाद करते हुए आपस में उलझ कर बिना भक्ति किये ही संसार से विदा हो गय
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य को शायद इसलिये भी स्वर्णकाल कहा जाता है क्योंकि इसमें अध्यात्मिक ज्ञान तथा हार्दिक भक्ति का महत्व बताते हुए कर्मकांडो से दूर रहने की बात कही गयी। कबीर, रहीम, मीरा, सूर तथा तुलसीदास जैसे महापुरुषों ने भक्ति भाव को प्रधानता दी पर अंधविश्वासों के नाम पर अपनाये कर्मकांडों का समर्थन कभी नहीं किया-संत कबीर तथा कविवर रहीम ने तो इसका जमकर विरोध किया और मखौल तक उड़ाया।
आश्चर्य इस बात है कि हमारा समाज के सामान्य लोग अध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति तथा हृदय से भक्ति करने को महत्व कम देते हुए कर्मकांडों को ही धर्म समझते हैं। अनेक लोग अपने पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक तथा मानसिक संकटों के निवारण के लिये तांत्रिकों की मदद लेते हैं जो कि उनमें अज्ञान तथा आत्मविश्वास के अभाव का प्रमाण होता है।
सच बात तो यह है कि वैदिक मंत्रों का प्रभाव तो होता है पर उसे लिये यह जरूरी है कि मनुष्य स्वयं निर्मल भाव से स्वयं उनका जाप करे। वह भी न करे तो हृदय में केवल भगवान के नाम का स्मरण करे तो भी संकट दूर हो जाते हैं। शादी तथा दुकान मकान के मुहूर्त के लिये पंडितों के पास जाकर तारीख निकाली जाती है पर क्या कभी किसी ने सोचा है कि जब यह प्रथ्वी, चंद्रमा या सूरज स्थापित हुआ होगा तक किसने मुहूर्त निकाला होगा।
कहने का अभिप्राय यह है कि हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तथा भक्ति भाव ही हमारे जीवन की नैया पार लगा सकता है। इस देह के जन्म या मृत्यु को लेकर नाटकबाजी करना बेकार है। कोई आदमी पैदा होता है तो लोग जश्न मनाते हैं और मरता है तो रोते हैं। मरने के बाद भी देह का यशोगान करना हमारी परंपरा नहीं है-यानि जन्म तिथि और पुण्यतिथि मनाना भी देहाभिमान का प्रमाण है। अनेक महापुरुषों ने तेरहवीं और श्राद्धों का भी विरोध किया है। श्रीमद्भागवत गीता के पहले अध्याय को विषाद योग कहा जाता है जिसमें वीर अर्जुन अपनी चिंताओं से श्रीकृष्ण जी को अवगत कराते हैं-उसमें पितरों के श्राद्ध पर संकट की बात भी कहते हैं। सीधी बात यह है कि मृत्यु पर शोक करना या तेरहवीं और श्राद्ध करना विषाद को ही जन्म देता है। अनेक लोग केवल इसलिये ही शोक, श्राद्ध तथा तेरहवीं करते हैं कि न करने पर समाज क्या कहेगा? वह यह सब करते हुए तनाव भी अनुभव करते हैं पर कह नहीं पाते। भगवान श्रीकृष्ण ने बाद के पंद्रह अध्यायों में इसी प्रकार की सकाम भक्ति को अनावश्यक बताया है। इस तरह के कर्मकांड न केवल धन बल्कि समय भी नष्ट करते हैं और अंततः निजी तनाव का कारण भी इन्हीं से उत्पन्न होता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorकौन मुहूरत थापिया, चांद सूरज आकाश।।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि जब यह धरती और आकाश नहीं था तब यहां कोई पंडित नहीं था। बताओ इनको स्थापित करने का मुहूर्त किसने निकाला होगा?
ब्राह्ण गुरु है जगत का, संतन के गुरु नाहिं
अरुझि परुझि के मरि गये, चारौ बेदों मांहिं।।
ब्राह्म्ण जगत का गुरु हो सकता है पर किसी संत का नहीं। ज्ञानी ब्राह्म्ण लोग वेदों पर वाद विवाद करते हुए आपस में उलझ कर बिना भक्ति किये ही संसार से विदा हो गय
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भक्तिकालीन हिन्दी साहित्य को शायद इसलिये भी स्वर्णकाल कहा जाता है क्योंकि इसमें अध्यात्मिक ज्ञान तथा हार्दिक भक्ति का महत्व बताते हुए कर्मकांडो से दूर रहने की बात कही गयी। कबीर, रहीम, मीरा, सूर तथा तुलसीदास जैसे महापुरुषों ने भक्ति भाव को प्रधानता दी पर अंधविश्वासों के नाम पर अपनाये कर्मकांडों का समर्थन कभी नहीं किया-संत कबीर तथा कविवर रहीम ने तो इसका जमकर विरोध किया और मखौल तक उड़ाया।
आश्चर्य इस बात है कि हमारा समाज के सामान्य लोग अध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति तथा हृदय से भक्ति करने को महत्व कम देते हुए कर्मकांडों को ही धर्म समझते हैं। अनेक लोग अपने पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक तथा मानसिक संकटों के निवारण के लिये तांत्रिकों की मदद लेते हैं जो कि उनमें अज्ञान तथा आत्मविश्वास के अभाव का प्रमाण होता है।
सच बात तो यह है कि वैदिक मंत्रों का प्रभाव तो होता है पर उसे लिये यह जरूरी है कि मनुष्य स्वयं निर्मल भाव से स्वयं उनका जाप करे। वह भी न करे तो हृदय में केवल भगवान के नाम का स्मरण करे तो भी संकट दूर हो जाते हैं। शादी तथा दुकान मकान के मुहूर्त के लिये पंडितों के पास जाकर तारीख निकाली जाती है पर क्या कभी किसी ने सोचा है कि जब यह प्रथ्वी, चंद्रमा या सूरज स्थापित हुआ होगा तक किसने मुहूर्त निकाला होगा।
कहने का अभिप्राय यह है कि हमारा अध्यात्मिक ज्ञान तथा भक्ति भाव ही हमारे जीवन की नैया पार लगा सकता है। इस देह के जन्म या मृत्यु को लेकर नाटकबाजी करना बेकार है। कोई आदमी पैदा होता है तो लोग जश्न मनाते हैं और मरता है तो रोते हैं। मरने के बाद भी देह का यशोगान करना हमारी परंपरा नहीं है-यानि जन्म तिथि और पुण्यतिथि मनाना भी देहाभिमान का प्रमाण है। अनेक महापुरुषों ने तेरहवीं और श्राद्धों का भी विरोध किया है। श्रीमद्भागवत गीता के पहले अध्याय को विषाद योग कहा जाता है जिसमें वीर अर्जुन अपनी चिंताओं से श्रीकृष्ण जी को अवगत कराते हैं-उसमें पितरों के श्राद्ध पर संकट की बात भी कहते हैं। सीधी बात यह है कि मृत्यु पर शोक करना या तेरहवीं और श्राद्ध करना विषाद को ही जन्म देता है। अनेक लोग केवल इसलिये ही शोक, श्राद्ध तथा तेरहवीं करते हैं कि न करने पर समाज क्या कहेगा? वह यह सब करते हुए तनाव भी अनुभव करते हैं पर कह नहीं पाते। भगवान श्रीकृष्ण ने बाद के पंद्रह अध्यायों में इसी प्रकार की सकाम भक्ति को अनावश्यक बताया है। इस तरह के कर्मकांड न केवल धन बल्कि समय भी नष्ट करते हैं और अंततः निजी तनाव का कारण भी इन्हीं से उत्पन्न होता है।
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मनुष्य का मार्ग और धर्म
पालनहार प्रभु ने मनुष्य की रचना दुख भोगने के लिए नहीं की है। दुख तो मनुष्य तब भोगता है जब वह ‘मार्ग’ से विचलित हो जाता है। मार्ग पर चलना ही मनुष्य का कत्र्तव्य और धर्म है। मार्ग से हटना अज्ञान और अधर्म है जो सारे दूखों का मूल है।
पालनहार प्रभु ने अपनी दया से मनुष्य की रचना की उसे ‘मार्ग’ दिखाया ताकि वह निरन्तर ज्ञान के द्वारा विकास और आनन्द के सोपान तय करता हुआ उस पद को प्राप्त कर ले जहाँ रोग,शोक, भय और मृत्यु की परछाइयाँ तक उसे न छू सकें। मार्ग सरल है, धर्म स्वाभाविक है। इसके लिए अप्राकृतिक और कष्टदायक साधनाओं को करने की नहीं बल्कि उन्हें छोड़ने की ज़रूरत है।
ईश्वर प्राप्ति सरल है
ईश्वर सबको सर्वत्र उपलब्ध है। केवल उसके बोध और स्मृति की ज़रूरत है। पवित्र कुरआन इनसान की हर ज़रूरत को पूरा करता है। इसकी शिक्षाएं स्पष्ट,सरल हैं और वर्तमान काल में आसानी से उनका पालन हो सकता है। पवित्र कुरआन की रचना किसी मनुष्य के द्वारा किया जाना संभव नहीं है। इसके विषयों की व्यापकता और प्रामाणिकता देखकर कोई भी व्यक्ति आसानी से यह जान सकता है कि इसका एक-एक शब्द सत्य है।
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