नष्टं समुद्रे पतितं नष्टं वाक्यमश्रृ्ण्वति।
अनात्मनि श्रुतं नष्टं नष्टं हुतमनग्रिकम्।
हिन्दी में भावार्थ-जैसे समुद्र में गिरी हुई वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह दूसरे की अनुसनी करने वाले को कही गयी उचित बात भी व्यर्थ हो जाती है। जिस मनुष्य ने अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं कर दिखाया उसका शास्त्र ज्ञान भी उसी तरह व्यर्थ है जैसे राख में किया गया हवन।
अनात्मनि श्रुतं नष्टं नष्टं हुतमनग्रिकम्।
हिन्दी में भावार्थ-जैसे समुद्र में गिरी हुई वस्तु नष्ट हो जाती है उसी तरह दूसरे की अनुसनी करने वाले को कही गयी उचित बात भी व्यर्थ हो जाती है। जिस मनुष्य ने अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण नहीं कर दिखाया उसका शास्त्र ज्ञान भी उसी तरह व्यर्थ है जैसे राख में किया गया हवन।
अकीर्ति विनयो हन्ति हन्त्यनर्थ पराक्रमः।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारो जन्तयलक्षणाम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य अपने अंदर विनय भाव धारण करता है उसके अपयश का स्वयमेव ही नाश हो जाता है। पराक्रम से अनर्थ तथा क्षमा से क्रोध का नाश होता है। सदाचार से कुलक्षण से बचा जा सकता है।
हन्ति नित्यं क्षमा क्रोधमाचारो जन्तयलक्षणाम्।।
हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य अपने अंदर विनय भाव धारण करता है उसके अपयश का स्वयमेव ही नाश हो जाता है। पराक्रम से अनर्थ तथा क्षमा से क्रोध का नाश होता है। सदाचार से कुलक्षण से बचा जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने अंदर ज्ञान का संचय करना अच्छी बात है पर उसकी अभिव्यक्ति हमेशा योग्य एवं जिज्ञासु व्यक्ति के सामने करना चाहिये। इस मायावी संसार में लोग भ्रम में जीना पसंद करते हैं और बहुत कम लोग ऐसे हैं जो हृदय में भक्ति भाव धारण कर तत्व ज्ञान को समझना चाहते हैं। इस बारे में श्रीमद्भागवत में कुछ रोचक संदेश भी हैं।
एक में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि ‘मेरा यह ज्ञान केवल मेरे उन भक्तों को दिया जाना चाहिये जो हृदय से मुझे पूजते हैं।’
दूसरे में वह कहते हैं कि ‘हजारों में कोई एक मुझे भजता है और उनमें भी हजारों में कोई हृदय से पूजने वाला कोई एक मुझे पाता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि सामान्य मनुष्य समुदाय में ज्ञानी पुरुष कम होते हैं। ऐसे में उनकी बातें अनेक लोग असामान्य या अयथार्थ समझने लगते हैं तो कई लोगों को अव्यवाहारिक लगने लगती हैं।
हमारे देश में अनेक संत और महात्मा धन संचय और भवन निर्माण में रत हैं और इसके लिये बड़ी मासूमियत से तर्क देते हैं कि ‘आजकल पैसे के बिना धर्म का काम भी कहां चल पाता है।’
दरअसल धर्म प्रचार जैसी कोई प्रक्रिया ही नहीं होती। अगर भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान की बात करें तो उसमें भक्ति, सत्संग तथा ज्ञान चर्चा नितांत निजी बताई गयी है और इस तरह के सामूहिक प्रयासों से किसी प्रकार का लाभ नहीं होता जैसा कि दावा कथित धार्मिक व्यवसायिक लोग करते हैं। सच तो यह है कि उन लोगों का स्वयं का ही ज्ञान व्यर्थ है जिन्होंने अपनी इंद्रियों पर विजय प्राप्त नहीं की और अर्थोपार्जन को उचित ठहराते हैं।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com
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