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Saturday, January 30, 2010

भर्तृहरि शतक-हिमालय से मलय पर्वत अधिक श्रेष्ठ (himalya and malay parvat-bhartrihari shatak)

किं तेन हेमगिरिणा रजताद्रिणा वा यत्राश्रिताश्च तरवस्तरवस्त एव।
मन्यामहे मलयमेव यदाश्रयेण कंकोलनिम्बकुटजा अपि चंन्दनाः स्युः।।
हिन्दी में भावार्थ-
चांदी के रंग के उस हिमालय की संगत से भी क्या लाभ होता है, जहां के वृक्ष केवल वृक्ष ही रह गये। हम तो उस मलयाचल पर्वत को ही धन्य मानते हैं जहां निवास करने वाले कंकोल, नीम और कुटज आदि के वृक्ष भी चंदनमय हो गये।
पातितोऽपि कराघातैरुत्पतत्येव कन्दुकः।
प्रायेण साधुवृत्तीनामस्थायिन्यो विपत्तयः।
हिन्दी में भावार्थ-
जमीन पर गेंद पटकी जाये तो फिर भी वापस आ जाती है। उसी प्रकार साधु भी अपने सद्गुणों की सहायता से अपनी विपत्तियों का निवारण कर लेते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भर्तृहरि महाराज यहां संगति के प्रभाव की चर्चा कर रहे हैं। मनुष्यों में वही श्रेष्ठ है जिसके सद्गुणों से दूसरे भी सुधरते हैं। सभी मनुष्यों के संपर्क एक दूसरे से होते हैं और व्यवसाय, नौकरी या पर्यटन में दौरान अनेक व्यक्ति मिलते और बिछड़ते हैं। जब तक साथ चलने का लक्ष्य रहता है आपस में बेहतर संबंध स्थापित होते हैं। सभी अपना काम मिलकर करते हैं पर एक दूसरे के अंदर ऐसा प्रभाव नहीं डाल पाते कि आपसी गुणों का स्वाभाविक रूप से विनिमय हो जाये। हिमालय पर्वत पर अनेक प्रकार के महत्वपूर्ण वृक्षों को वास होता है पर वह चंदन नहीं हो जाते जबकि मलय पर्वत पर चाहे जो भी पेड़ हो उसमें चंदन की सुगंध आ जाती है। मनुष्यों में जो श्रेष्ठ होते हैं वह न केवल अपने से बड़े बल्कि अपने से छोटे लोगों को भी अपने गुणों से ऐसा प्रभावित करते हैं कि वह उनमें भी आ जाते हैं।
इसी कारण अपने गुणों को पहचान कर उनमें श्रीवृद्धि करना चाहिये। इससे अनेक लाभों में यह भी है कि उनके सहारे ही हम जीवन पथ पर विपत्तियों से लड़ते हुए आगे बढ़ते हैं। जिस तरह गेंद जमीन पर पटक दिये जाने पर फिर वापस आती है वैसे ही साधु भी अपने गुणों के सहारे संकट काट लेते हैं। इससे प्रेरणा लेते हुए अपने अंदर साधुत्व का भाव लाना चाहिये। मनुष्य वही श्रेष्ठ है जो अपने सत्गुणों से दूसरे का मन तो प्रसन्न करता ही उसे अपने अंदर ऐसे गुण लाने की प्रेरणा भी देता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

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