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Saturday, September 19, 2009

संत कबीरदास वाणी-आहार विषयक चिंता से मुक्ति न पाये, वह योगी नहीं (sant kabir vani(bhojan ki chinta aur yog sadhna)

आसन मारे कह भयो, मरी न मन की आस।
तेल केरे बैल ज्यौं, घर ही कोस पचास।।
संत शिरोमणि कबीरदासजी कहते हैं कि आसन लगाने से भी क्या लाभ जब मन में कामनाएं जीवित रहें। वह तो तेली के बैल की तरह है जो घर में पचास कोस का चक्कर काट लेता है।
जोगी हृै जग जीतता, बहिरत है संसार।
एक अंदेशा रहि गया, पीछै पड़ा आहार।।
संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जोगी जग जीतकर विचरण करता है पर अगर उसके अंदर अपने आहार के विषय में संशय रह गया तो वह ठीक नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-कबीरदास जी ने योग साधना के विषय में जो बातें कही है वह उनके काल में शायद इसलिये ही ठीक लगी क्योंकि उस समय नियमित परिश्रम के कारण लोगों में रोग आदि कम होते थे और जो लोग योगासाधना करते थे उनको केवल सन्यासी मान लिया जाता था। जबकि वर्तमान समय में परिश्रम की प्रवृत्ति कम हुई है जिससे बीमारियों का प्रकोप बढ़ा है जिससे समाज में शारीरिक और मानसिक के कारण लोग बहुत परेशान हैं इसलिये योग साधना केवल भक्ति ही नहीं बल्कि उन विकारों से लड़ने का एक अच्छा साधन लगती है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि संत शिरोमणि कबीरदास जी को योग साधना और ध्यान के विषय में अधिक जानकारी नहीं थी। दूसरा यह भी कि वह भक्ति के ऐसे चरम शिखर पर पहुंचे थे जहां कोई विरला पहुंचता है। योगसाधना भक्ति का रूप नहीं है बल्कि उसके लिये शक्ति अर्जित करने का एक साधन है। कबीरदास जी कहते हैं कि योगी जग जीतता हुआ जग में विचरण करता है पर आहार विषयक उसका संदेह उसे सांसरिक व्यक्तियों की श्रेणी में खड़ा कर देता है। इस तरह के संशय मनुष्य में अपनी ही देह, मन और विचारों में स्थित विकारों के कारण उत्पन्न होते हैं और योग साधना, ध्यान और मंत्रोच्चार से उनको दूर कर परमात्मा की भक्ति बहुत सहज ढंग से की जा सकती है यह बात शायद कबीर नहीं समझ पाये। इसलिये उन्होंने आसनों के विषय में ऐसी प्रतिक्रिया दी है। इसके बावजूद योग साधकों को कबीरदास जी के कथनों की अनदेखी नहीं करना चाहिये क्योंकि उनकी आहार विषयक चेतावनी बहुत महत्वपूर्ण है और यही वह बिन्दू है जहां मनुष्य आकर रुक जाता है। एक बार पेट भरने के बाद उसे अगले समय की चिंता लग जाती है। सामान्य गृहिणियों का अधिकतर समय तीन समय का भोजन बनाने में लग जाता है और ऐसे में वह तो अध्यात्मिक विषय में चिंतन कर ही नहीं पातीं।
योग साधना और ध्यान के बावजूद अगर आहार व्यवहार विषयक शुद्धता हमारे अंदर नहीं आती तो अपनी नियमित अवधि को बढ़ायें। जहां तक ध्यान का विषय तो अपने अंदर संकल्प लें कि हम तो वह लगाते ही रहेंगे चाहे लगे या नहीं। अंततः उसमें सफलता मिलेगी और शनैः शनैः दैहिक, मानसिक और वैचारिक विकार दूर निकल जायेंगे और आहार विषय चिंता से मुक्ति मिल सकेगी।
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