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Friday, September 18, 2009

रहीम के दोहे-दानदाता होते हैं नदी की तरह (rahim ke dohe-dandata aur nadi)

रहिमन दानि दरिद्रतर, तऊ जांचिबे योग।
ज्यों सरितन सूख परे, कुआं खनावत लोग।।

कविवर रहीम कहते हैं कि यदि को दानी मनुष्य दरिद्र भी तो भी उससे याचना करना बुरा नहीं है क्योंकि वह तब भी उनके पास कुछ न कुछ रहता ही है। जैसे नदी सूख जाती है तो लोग उसके अंदर कुएं खोदकर उसमें से पानी निकालते हैं।
रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि।
जहां काम आवै सुई, कहा करै तलवारि।।
कविवर रहीम के अनुसार बड़े लोगों की संगत में छोटों की उपेक्षा नहीं करना चाहिए क्योंकि विपत्ति के समय उनकी भी सहायता की आवश्यकता पड़ सकती है। जिस तरह तलवार के होने पर सुई की उपेक्षा नहीं करना चाहिए क्योंकि जहां वह काम कर सकती है तलवार वहां लाचार होती है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिस मनुष्य में दानशीलता की प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से मौजूद होती है उसको प्रकृत्ति का एक तरह से वरदान होता है कि देने के लिये उसके पास कुछ न कुछ हमेशा रहता है। सच तो यह है कि यह संसार परमेश्वर के संकल्प के आधार पर बना है और इसलिये उसका संचालन भी वही करता है। जैसे जीव का संकल्प होता है वैसी ही यह दुनियां उसके लिये चलती है। इसलिये जिन लोगों के मन में दान देने का संकल्प रहता है प्रकृत्ति और परमेश्वर की कृपा से वह दरिद्र होने पर भी ऐसी वस्तुओं को पा लेते हैं जिनका दान वह कर सकें। ठीक इसके विपरीत याचना करने वालों की भी है। उनका पेट कितना भी भर जाये वह याचना से बाज नहीं आते। उनकी आंखों में हमेशा बेचारगी और चालाकी का भाव भरा रहता है कि कहीं से कोई वस्तु प्राप्त हो जाये। वह अपने अंदर असमर्थता का भाव स्वयं ही स्थापित करते हैं।
अपने अंदर यह भाव रखना चाहिये कि हम दूसरे को कुछ दे सकें तो यह अनुभव होगा कि हमारे पास धन और वस्तुऐं अपने आप आती रहेंगी। जहां हमने सोचा कि हम किसी से कुछ मांगें वहीं हमारे लिये विपत्तियों का पहाड़ भी बन जाता है। यह सारा विश्व संकल्प के अनुसार चल रहा है तो क्यों न हम अपने अंदर अच्छे संकल्प धारण करें। जब हम समाज या देश के लिये कुछ करने को प्रवृत्त होंगे तो लगेगा कि हमारे शरीर का सामथ्र्य बढ़ रहा है और धन भी आ रहा है। अपने आपको समर्थ अनुभव करने से हम अपने अंदर एक सुख की अनुभूति भी कर सकते हैं।
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