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Thursday, September 17, 2009

चाणक्य नीति-जिसके पास अपनी बुद्धि नहीं वेद शास्त्र उसका क्या भला करेंगे (chankya niti-buddhi aur ved shastra)

यस्य नास्ति प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम्।
लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः कि करिव्यति।।
हिंदी में भावार्थ-
जिसके पास स्वयं की बुद्धि नहीं है उसका वेद शास्त्र आदि क्या लाभ कर सकते हैं। जन्मांध व्यक्ति को दर्पण से क्या वास्ता हो सकता है?
दुर्जनं सज्जनं कर्तृमुपायो न हि भूतले।
अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रििय भवेतु।।
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट व्यक्ति को सज्जन बनाने के लिये इस धरती पर कोई उपाय या साधन नहीं मिल सकता, जैसे अपने मल त्याग करने वाली इंद्रियां बहुत धोने के बाद भी श्रेष्ठ नहीं बन सकती।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय-ज्ञान उसी व्यक्ति को दिया जा सकता है जिसके मन में जिज्ञासा हो। अगर किसी व्यक्ति ने यह तय कर लिया है कि उसके पर्याप्त ज्ञान का भंडार है और तर्कशास्त्र में उसका कोई सानी नहीं तो उसे समझाना कठिन है। उसका अहंकार उसे दुर्जन और अहंकारी बना देता है। आज की शिक्षा पद्धति में भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान को संभवतः इसलिये शामिल नहीं किया गया क्योंकि अंग्रेजी विषयों से आदमी गुलाम बनाये रखने में सुविधा मिल जाती है। चारों तरफ मूर्खों की बहस देखी जा सकती है जिसमें निष्कर्ष निकलना तो दूर आपस में वैमनस्य की भावना फैल जाती है। हर जगह ऐसे बुद्धिजीवी मिल जायेंगे जो विदेशी किताबों से ज्ञान लेकर ऐसे बघारते हैं जैसे कि कोई अंतिम सत्य प्रस्तुत कर रहे हों।
मजे की बात है कि भारतीय विचारधारा के समर्थक भी अपने अध्यात्मिक ग्रंथों से थोड़ा बहुत विचार लेकर उनका प्रतिकार करते हैं। भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में जो तत्वज्ञान है उसे वह भी नहीं जानते। धर्म प्रचार और धर्मपरिवर्तन जैसे विषयों पर अनवरत बहस चलती है। हर कोई अपने धर्म मानने वालों की संख्या बढ़ाना चाहता है भले ही वह अज्ञानी लोगों का समूह बन जाये।
सच बात तो यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में केवल धर्म से संबंधित विषयों पर अच्छी जानकारी है बल्कि संासरिक विषयों पर भी वैज्ञानिक ज्ञान उसमें दर्ज है पर उससे परे होकर अल्पज्ञानी केवल आत्मप्रचार के लिये उसका अध्ययन करते हैं। धर्म,ज्ञान और सत्संग बाजार में बिकने वाली शय की तरह हो गया है। अपने को धार्मिक तथा अपने धर्म को श्रेष्ठ साबित करने के लिये एक ऐसी दौड़ लगी हुई है जिसे अध्यात्मिक ज्ञानी को अपने ही ज्ञान पर संदेह हो सकता है। जिज्ञासुओं से अधिक तो कथित ज्ञानी मिल जायेंगे। ऐसे में उनको समझाना कठिन है क्योंकि उनकी बुद्धि अपहृत हो चुकी है और भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों का ज्ञान वही समझ सकता है जिसके पास अपना विवेक हो। अपने को ज्ञानी समझने वाले कथित बुद्धिमानों को सत्य का ज्ञान कराना कतई संभव नहीं है। ऐसे में भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में जो ज्ञान और विज्ञान है उसका अध्ययन कर अपने जैसे जिज्ञासुओं में बांटना चाहिये। समाज में कुशल, ज्ञानी, और शक्तिशाली सदस्य होना चाहिये भले ही उनकी संख्या कम हो।
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