लज्जा नारी का आभूषण थी, अब अल्पवस्त्र पहचान हो गयी।
कहें दीपकबापू अबला छाप खत्म, विज्ञापन की जान हो गयी।।
वैभवस्वामी होते क्षीण बुद्धि, झुके सिर से अपना मान जाने।
दीपकबापू पैसे पद में डूबे, मोलतोल की कला ही ज्ञान जाने।।
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कोई खुश होता है पुतला जलाकर, कोई पत्थर
फैंककर मारे।
‘दीपकबापू’ अधर्मी पर फिदा, लगते हैं दुनियां के लोग सारे।।
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रोटी न होती भूख भी न होती, भलाई का अवसर
कहां मिलता।
दीपकबापू सब त्याग कर जीते, राजाओं को घर
कहां मिलता।।
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श्रम और बुद्धि का संगम, संसार में अर्थ
सिद्धि का यही मंत्र।
‘दीपकबापू’ सब खायें खुश रहें, समाज बनता धर्म का तंत्र।।
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कर्ज लेना हमेशा सस्ता लगे, चुकाना पड़ता
महंगा ब्याज।
दीपकबापू नमक से ही सब्जी सजायें, त्यागें महंगा
प्याज।।
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वातानुकूलित यंत्र न ही ईंधन का चौपाया, फिर भी अपनी मौज
है।
कहें
दीपकबापू दौलत के पीछे, अक्ल के अंधों की बेचैन फौज है।
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जितना नचाये माया तू नाच, फिर मोर की तरह उदास न होना।
‘दीपकबापू’ दौलत का ढेर लगा, फिर पहरेदारी में चैन न खोना।।
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दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’
कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक 'भारतदीप",ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak 'BharatDeep',Gwalior
http://dpkraj.blogspot.comयह कविता/आलेख रचना इस ब्लाग ‘हिन्द केसरी पत्रिका’ प्रकाशित है। इसके अन्य कहीं प्रकाशन की अनुमति लेना आवश्यक है।
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