समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

Tuesday, December 24, 2013

विषयों में आसक्त लोगों को ज्ञान देने से लाभ नहीं-मनुस्मुति के आधार हिन्दी चिंत्तन लेख(vishayon mein asakt logon ko gyan dene se labh nahin-hindi thought aritcle based on manu smriti)



                        हमारे देश में धर्म के विषय पर कहीं चर्चा हो तो अनेक लोग बातें सुनने और कहने के लिये लालायित हो उठते हैं। हैरानी की बात है कि जितना धर्म के विषय में हमारे पौराणिक ग्रंथों में लिखा गया उससे अधिक अन्यत्र कहीं सामग्री नहीं मिलती।  यही कारण है कि हमारे देश में उससे पढ़कर रटने वाले धर्म संदेशों के प्रचार को एक व्यवसाय बना लेते हैं।  दूसरी बात यह भी है कि हमारे देश में लोगों का व्यवसाय कृषि, लघु एवं कुटीर उद्योग के साथ ही वस्तुओं का विक्रय कर अपना पेट पालना रहा है।  पुराने समय में लोगों को बाज़ार के छोटे होने के कारण  अपने धंधे आदि से फुर्सत अधिक रहती थी और यही कारण है कि उनके हृदय में संसार के विषयों के पश्चात् अज्ञात शक्ति की आराधना करने का समय निकल आता है। इसी कारण उनके अंदर धर्म के प्रति आस्थाओं का जन्म हुआ। सीधी बात कहें तो उनका अध्यात्म उन्हें अपनी तरफ आकर्षित करता था। संसार की अज्ञात शक्ति के प्रति जिज्ञासा का कथित धर्म प्रचारकों ने खूब लाभ उठाया  औद्योगिक रूप से हमारा देश अभी शैशवकाल में ही है। ऐसे में छोटे शहरों और गांवों में लोगों के पास धर्म के प्रति रुचि अभी भी बरकरार है।  यह अलग बात है कि उनको ज्ञान देने वाले कथित गुरु उनकी जिज्ञासा शांत करने की बजाय अपनी चालाकी से कथायें सुनाकर या भजन गाकर मनोरंजन के माध्यम से उनके मन को प्रसन्न करते हैं। जहां तक ब्रह्मज्ञान का प्रश्न है उसके बारे में भ्रांत धारणाऐं प्रचलित हैं। कौन त्यागी, कौन सन्यासी और कौन तत्वाज्ञानी इसके बारे में आम लोगों अपने अपने गुरुओं के मतानुसार विचार करते हैं। 
         अनेक कथित ब्रह्मज्ञानी तो ऐसे हैं जो केवल संपत्ति संग्रह और शिष्यों के समूह का संचय कर प्रचार में प्रसिद्धि पाते हैं। इतना ही नहीं बाज़ार तथा प्रचार समूहों के लिये जो उपयोगी हैं वह सिद्ध है और जो नहीं है उसे कोई पूछता तक नहीं है। सच बात तो यह है कि त्यागी ही सच्चा सन्यासी होता है।  सन्यास का यह अर्थ कदापि नहीं है कि आदमी अपनी सांसरिक जिम्मेदारी से भागकर गेरुऐ वस्त्र पहन ले। गेरुए वस्त्र पहनकर भी जो कामनायें करता है वह सन्यासी नहीं है। इच्छाओं का त्याग करे वही ब्रह्मज्ञानी है और जो इच्छाओं की पूर्ति में ही लगा रहे उससे तो न ज्ञान लेना चाहिये और न उसे देना चाहिये।
मनुस्मृति में कहा गया है कि

-----------------

न जातु कामा कामानामुपभोगेन शाम्यति।

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूव एवाभिवर्धते।।

                        हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह आग में घी डालने से अग्नि प्रज्जवलित होती है उसी तरह एक इच्छा पूरी होने पर दूसरी स्वतः जाग्रत हो जाती है।

अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते।

धर्म जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः।।

                        हिन्दी में भावार्थ-अर्थ और काम में आसक्त लोगों के लिये धर्म का ज्ञान देने का कोई विधान नहीं है। धर्म के विषय में जिज्ञासा रखने वालों के लिये वेद ही सर्वोच्च प्रमाण हैं।
                        भारत में हिन्दू धर्म में साकार तथा निराकार दो प्रकार की भक्ति की धारा प्रचलित है पर अब तो यहां अहंकार की भक्ति की धारा भी बह रही है। अनेक गुरु स्वयं को भगवान का अवतार बताकर लोगों में अपने शिष्य बनाते हैं।  इतना ही नहीं जो उनसे व्यवसायिक लाभ उठाना चाहते हैं या वेतन पाते हैं वह हृदय से अपने स्वामी को भगवान नहीं मानते पर शिष्यों को प्रभावित करने के लिये वह इसी तरह का प्रचार करते हैं। अनेक बार तो ऐसा भी होता है कि धर्म व्यवसाय में लगे लोग एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप करने का प्रयास करते हुए समाज में वैमनस्य फैलाते नज़र आते हैं।  यह सब देखते हुए धर्म के प्रति जिज्ञासा रखने वाले लोग हमेशा ही ंसशय में रहते हैं।
                        इस संशय के निवारण के लिये लोगों को अपने ही धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते रहना चाहिये।  यही  ग्रंथ धर्म का प्रमाण हैं और अगर इनका ध्यान से अध्ययन किया जाये तो धर्म के साथ ही तत्वज्ञान की अनुभूति स्वतः होने लगती है।  सबसे बड़ी बात यह कि हमारे धर्मग्रंथ मानते हैं कि कामनाओं का त्याग करना ही सन्यास है और ग्रहस्थ होते हुए भी सन्यासी हुआ जा सकता हैं।  अतः भ्रम में आकर किसी को न तो गुरु बनाना चाहिये न गुरु में ईश्वर का रूप देखने की कामना करना चाहिये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep",Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.शब्दलेख सारथि
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
४.शब्दयोग सारथी पत्रिका
५.हिन्दी एक्सप्रेस पत्रिका 
६.अमृत सन्देश  पत्रिका
यह ब्लाग/पत्रिका विश्व में आठवीं वरीयता प्राप्त ब्लाग पत्रिका ‘अनंत शब्दयोग’ का सहयोगी ब्लाग/पत्रिका है। ‘अनंत शब्दयोग’ को यह वरीयता 12 जुलाई 2009 को प्राप्त हुई थी। किसी हिंदी ब्लाग को इतनी गौरवपूर्ण उपलब्धि पहली बार मिली थी। ------------------------

No comments:

विशिष्ट पत्रिकायें