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Sunday, August 12, 2012

विदुर नीति-अपने पर आश्रित को न खिलाना क्रूरता (vidur neeti on corruption or bhrashtachar)

   द्वापर में जब महात्मा विदुर ने महाभारतकाल के दौरान धृतराष्ट्र को अपने अपदेश दिये थे तब यह कल्पना भी नहीं की होगी कलियुग में भी उनका महत्व उतना ही रहेगा।  दूसरी बात हम जब कहते हैं कि कभी इस धरती पर सतयुग या कलियुग रहता है तो यह धारणा स्वयमेव खंडित हो जाती है जब यह पता चलता है कि आज की तरह उस समय भी भ्रष्टाचार और अन्याय होता था।  आज हम देखते हैं कि देश के गरीबों, दलितों तथा भूखे लोगों को रोजगार तथा रोटी देने के लिये अनेक योजनाओं में सरकार धन देती है पर बीच में काम करने वाले राजकर्मी सारा का सारा हड़प जाते हैं।   वह यह पाप बेहिचक करते हैं। यह अलग बात ऐसे ही लोग धर्म के पाखंड में जुटे दिखते हैं।  स्थिति तो यह है कि अनेक सफेदपोश लोग जिनके घर महलों जैसे बने हैं वह गरीब के पास जाता निवाला भी अपने घर रुपये के रूप में ले जाते हैं।  उसकी झौंपड़ी मे पहुंचने वाली रसद का रास्ता अपने घर की तरफ बदल देते हैं।
विदुर नीति में कहा गया है कि
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               एकः सम्पन्नायश्नाति वस्ते वासश्च शोभनम।
     योऽसंविभज्य भृत्येभ्यः कौः नृशंसतरस्ततः।।
  हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य अपने से पोषित पात्र लोगों को बिना कुछ दिये भोजन करता है उसके वस्त्र पहनता है उससे बढ़कर क्रूर कौन हो सकता है।
     देश में धर्म के प्रचार का जितना शोर है उसे देखकर तो यहां कदम कदम पर धर्मात्मा मिलना चाहिए पर हो इसका उल्टा रहा है।  जहां तहां राक्षसी प्रवृत्ति के लोग धन संग्रह के लिये किसी भी अपराध को करने के लिये तैयार दिखते हैं।  अनेक जगह तो विभिन्न धर्मों के प्रतीक रंगों को पहनकर उसकेे ठेकेदार बनने वाले लोग अपने पास आने वाले बंदों को ठगते हैं।  धर्म के क्षेत्र में भ्रष्टाचार है। कला और साहित्य के क्षेत्र में भी इसी तरह अपने शासित लोगों का शोषण हो रहा है।  कहने का अभिप्राय यह है कि दूसरे के कंधे पर बंदूक चलाकर उसका ही निवााला छीनना आम बात हो गयी है।  जिसके कल्याण की बात की जाये उसी से मुंह फेर कर चलना क्रूरता है।  जिन लोगों को भारतीय अध्यात्म से प्रेम है वह इस बुराई से बचें तभी अपने हृदय को प्रसन्न कर सकते हैं।  
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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