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Sunday, August 19, 2012

बगुले से भी सीख ली जा सकती है-चाणक्य नीति दर्शन (bagule se seekh-chankya neeti darshan)



      सामान्य मनुष्य हमेशा ही बहिर्मुखी रहता है। आंखों के सामने घटित दृश्य, कानों में गूंजते स्वर तथा नासिका से सुगंध दुंर्गंध का बोध करने में उसकी इंद्रियां इतनी व्यस्त रहती है कि उसकी बुद्धि मे चिंत्तन का कीड़ा कभी घूमता नज़र नहीं आता।  विरले लोग ही होते हैं जो आत्ममंथन करते हैं।  ऐसे ज्ञानी लोग न केवल सदैव प्रसन्न रहते हैं बल्कि हर स्थिति में सफलता उनके हिस्से ही आती है।  आमतौर से बगुले को धूर्तता का पर्याय माना जाता है पर उसे अगर चालाकी समझा जाये तो कुछ सीखा जा सकता है। वह अपनी इंद्रियों को वश में कर तालाब में मछलियों का शिकार करता है।  अगर मनुष्य उससे सीखकर अपने जीवन के लक्ष्यों को पूरा करने का प्रयास करे तो वह सुखी रह सकता है।
चाणक्य नीति में कहा गया है कि
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इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत् पण्डितो नरः।
देशकालबलं सर्वकार्याणि साधयेत्।।
                     हिन्दी भावार्थ-ज्ञानी व्यक्ति हमेशा ही बगुले की तरह इंद्रियों पर नियंत्रण कर देश और काल की समझ धारण कर अपने बल से ही सारे कार्यो को संपन्न करता है।’’
य एतान् विंशतिगुणानाचारिव्यति मानवः।
कार्याऽवस्थासु सर्वासु अजेयः स भविष्यति।।
                                                  हिन्दी में भावार्थ-जो व्यक्ति बीस गुणों का आचरण कर जीवन व्यतीत करेगा वह कायों को संपन्न करने के साथ हर अवस्था में विजयी होता है।’’
      हमें जब भी एकांत मिले आत्ममंथन अवश्य करना चाहिए। अपने गुणों तथा बल के साथ ही अपनी कमजोरियों पर भी विचार करना चाहिए। हमेशा बहिर्मुखी बने रहने से कोई लाभ नहीं जब तक हम अंतर्मुखी होकर विचार न करें। जीवन में सफलता का मूल मंत्र यही है कि अपने अंदर गुणों के संचय का प्रयास भी करें।
 
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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