तन का मैल नहाने और मन का मैल भक्ति से निकलता है, अक्सर प्रवचनकर्ता यह बात कहते हैं। यह बरत सही भी है। जब हम अपनी देह और मन के विषय पर आत्ममंथन करते हैं तो पाते हैं कि कछ कमी रह जाती है। हम जमकर नहायें और हृदय से भक्ति करने का प्रयास भी करें तब भी लगता है कि कुछ छूट रहा है। इसका उपाय हमारे समझ में नहीं आता। यह कमी क्या है? क्यों रह जाती है।
दरअसल हमारी देह गुणों के वशीभूत है। हम प्रतिदिन जो खाते हैं वह मल के रूप में हमारे अंदर विराजमान रहता ही है। महान नीति विशारद चाणक्य का कहते हैं कि हमारे निष्कासन अंग कभी पूरी तरह स्वच्छ नहीं रहते।
यह मल हमारे मन मस्तिष्क को प्रभावित करता है। इससे बचने का उपाय है योग साधना। सुबह या शाम हम जब मल विसर्जन करते हैं तब लगता है कि हमारी देह अंदर से स्वच्छ हो गयी पर ऐसा होता नहीं है। योग साधना का अनुभव होने पर यह पता चलता है कि हमारे अंदर मल बहुत बड़ी मात्रा में रह जाता है जो अंततः दैहिक तथा मन के विकारों को उत्पन्न करता है। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार मनुष्य का मन, बुद्धि तथा देह गुणों के वशीभूत है। जब देह में विकार होत तो मन और बुद्धि में शुद्धता और पवित्रता की आशा करना व्यर्थ है। दरअसल अपनी देह को एक दुष्टा की तरह देखने की आवश्यकता है। हम अनेक बार तनाव तथा अशांति के दौर में पहुंच जाते हैं तब मानसिक संताप से स्वयं को कष्ट पहुंचाने के अलावा कुछ नहीं कर पाते। इससे बचने के उपाय के रूप में योग साधना एक महत्वपूर्ण उपाय है।
नियमित योग साधना को कोई लाभ होता है। एक समय ऐसा भी आता है जब हमारी देह इतनी आदी हो जाती है तब यह लगता है कि अब कोई नहीं हो रहा है, पर यह सोच गलत है
। नियमित योग साधना करते हुए हमें यह भी सोचना चाहिये हम उन हानियों से भी बचे रहते हैं जो इसका अभ्यास न करने पर पहुंचती हैं।लेखक-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’
ग्वालियर मध्यप्रदेश
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
writer and editor-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep', Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
4.दीपक भारतदीप की धर्म संदेश पत्रिका
5.दीपक भारतदीप की अमृत संदेश-पत्रिका
6.दीपक भारतदीप की हिन्दी एक्सप्रेस-पत्रिका
7.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
No comments:
Post a Comment