यह मनुष्य स्वभाव है कि वह अपने दिन प्रतिदिन के कर्म से अलग कुछ करना चाहता है। वह दिन प्रतिदिन दिखने वाली वस्तुओं, व्यक्तियों तथा स्थानों को देखते देखते उकता जाता है और इस संसार में नयापन देखना चाहता है। मनुष्य के इसी चंचल मन का लाभ वह व्यापारी उठाते हैं जो भावनाओं और संवदेनाओं को विक्रय की वस्तु बना लेते हैं। उनके लिये मनोरंजन भक्ति तो तो भक्ति मनोरंजन हो जाता है।
मनोरंजन के विभिन्न रूपों से भी मनुष्य उकता जाता है क्योंकि वह इस संसार के भोग पदार्थों, वस्तुओं तथा स्थानों के इर्दगिर्द ही घूमते हैं। ऐसे में अदृश्य शक्ति के प्रति मनुष्य मन आकर्षित होता है। उसका लाभ भी कुछ व्यापारी संत या साधु बनकर उठाते हैं। यही कारण है कि हमारे इस संसार में भक्ति के नाम पर अनेक प्रकार के इष्ट स्थापित किये गये हैं। उससे भी अधिक बात यह कि सभी इष्टों की भक्ति के ठेकेदार एक साथ मिलकर लोगों की एकता के लिये अभियान चलाते हैं जबकि फूट डालने का काम भी वही करते हैं।
कोई आदमी चाहे तो सहज भाव से भक्ति कर सकता है पर उसके चारों इस तरह का वातावरण बना दिया गया है कि वह असहज होकर ही परमात्मा का आराधना करता है।
कोई कहता है कि ‘भगवान मुझे अपनी अभीष्ट वस्तु दो’, कोई कहता है कि ‘मुझे स्वर्ग प्रदान करो’ तो कोई अपने सांसरिक कामों की सिद्धि के लिये उसकी दरबार में गुहार लगाता है। इस तरह भक्ति को असहज बना दिया गया है।
मनोरंजन के विभिन्न रूपों से भी मनुष्य उकता जाता है क्योंकि वह इस संसार के भोग पदार्थों, वस्तुओं तथा स्थानों के इर्दगिर्द ही घूमते हैं। ऐसे में अदृश्य शक्ति के प्रति मनुष्य मन आकर्षित होता है। उसका लाभ भी कुछ व्यापारी संत या साधु बनकर उठाते हैं। यही कारण है कि हमारे इस संसार में भक्ति के नाम पर अनेक प्रकार के इष्ट स्थापित किये गये हैं। उससे भी अधिक बात यह कि सभी इष्टों की भक्ति के ठेकेदार एक साथ मिलकर लोगों की एकता के लिये अभियान चलाते हैं जबकि फूट डालने का काम भी वही करते हैं।
कोई आदमी चाहे तो सहज भाव से भक्ति कर सकता है पर उसके चारों इस तरह का वातावरण बना दिया गया है कि वह असहज होकर ही परमात्मा का आराधना करता है।
कोई कहता है कि ‘भगवान मुझे अपनी अभीष्ट वस्तु दो’, कोई कहता है कि ‘मुझे स्वर्ग प्रदान करो’ तो कोई अपने सांसरिक कामों की सिद्धि के लिये उसकी दरबार में गुहार लगाता है। इस तरह भक्ति को असहज बना दिया गया है।
विष्णुपुराण में कहा गया है कि
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वर्णाश्रमाचारवता पुरुशेणु परः पुमान्।
विष्णुराराध्यते पन्था नान्यस्त्तोपकारकः।।
‘‘अपने अपने वर्णाश्रम के आचरण के अनुसार कर्म करते हुए परमात्मा की भक्ति करना ही श्रेयस्कर है। परम पुरुष को प्रसन्न करने का इसके अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं है।"
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वर्णाश्रमाचारवता पुरुशेणु परः पुमान्।
विष्णुराराध्यते पन्था नान्यस्त्तोपकारकः।।
‘‘अपने अपने वर्णाश्रम के आचरण के अनुसार कर्म करते हुए परमात्मा की भक्ति करना ही श्रेयस्कर है। परम पुरुष को प्रसन्न करने का इसके अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं है।"
अगर हमें लगता है कि हमारा मन संसार से ऊब रहा है या कहीं नहीं लग रहा तो उसका सीधा उपाय यह है कि अपना ध्यान निरंकार ईश्वर की तरफ लगा दो। अपना ध्यान नाक के ठीक ऊपर भृकुटि पर केद्रित कर दो। मन ही मन ओम शब्द का जाप करो। इसके अलावा गायत्री मंत्र का मन ही मन या वाणी से उच्च स्वर में स्मरण करो। कहीं मंदिर में जाकर शांति से बैठ जाओ। इसके विपरीत अगर कहीं भक्ति के ठेकेदारों की शरण लेने पर वह तमाम तरह के कर्मकांडों से बांध देते हैं। उनका उद्देश्य केवल पैसा ऐंठना और अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाना ही होता है। जिस भक्ति को हम सहजता से कर सकते हैं उसे वह अत्यंत कठिन बताते हैं। इसलिये उनकी बात पर ध्यान न देकर सहजता से भगवान की भक्ति करना चाहिए।
---------------लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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