विश्व में अनेक प्रकार के धर्म प्रचलित हैं। इन धर्मो की स्थिति यह है कि उनमें भाषा, राष्ट्र, पवित्र पुस्तकों से उनको पहचाना जाता है। उनको अलग अलग नामों से भी पुकारा जाता है। हमारे धर्मग्रंथों की बात माने तो धर्म का कोई नाम नहीं है। न हिन्दू धर्म न सनातन धर्म। धर्म का सीधा संबंध मनुष्य के आचरण से है। कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य धर्म के मार्ग पर चलता है या अधर्म का अनुसरण करता है, उसकी कोई तीसरी स्थिति नहीं है जिससे नाम से पुकारा जाये। धर्म शब्द ही अपने आप में परिपूर्ण है उसकी आचरण से व्याख्या तो की जा सकती है पर कोई नाम नहीं दिया जा सकता । हमारे धर्मग्रंथों में दान की अत्यंत व्यापक दृष्टि से व्याख्या की गयी है। उसमें निष्काम कर्म के साथ ही निष्प्रयोजन दया का भाव रखने के लिये कहा गया है। दान देने में कोई शर्त लगाना अनुचित है क्योंकि वह निष्फल हो जाता है।
इस विषय पर हमारे धर्मग्रंथ कहते हैं कि
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अभिगम्य कृते दानं त्रेतास्वाहूय दीयते।
द्वापरे याचमानाय सेवया दीयते कलौ।।
सेवादानं च निष्फलम्।।
‘‘सतयुग में दान सुपात्र को घर जाकर दिया जाता था। त्रेतायुग में सुपात्र को घर बुलाकर दान दिया जाता था जबकि द्वापर में याचना करने पर दान दिया जाने लगा और कलियुग में तो सेवा कराकर दान दिया जाता है। इस तरह सतयुग का दान उत्तम, त्रेतायुग का मध्यम तथा द्वापर का अधर्म का प्रतीक माना गया जबकि कलियुग में दिया गया दान तो एकदम निष्फल है।
कृते तु मानवो धर्मस्त्रेतायां गौतमः स्मृतः।
द्वापरै शंखलिखितः कलौ पाराशरः स्मृतः।।
इस तरह पाराशर ऋषि के मतानुसार मानव को हमेशा ही धर्म का पालन करना चाहिये। जहां तक हो सके कदाचार से दूर रहते हुए अपनी सामर्थ्य के अनुसार धर्म का पालन करना ही उचित है।
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अभिगम्य कृते दानं त्रेतास्वाहूय दीयते।
द्वापरे याचमानाय सेवया दीयते कलौ।।
सेवादानं च निष्फलम्।।
‘‘सतयुग में दान सुपात्र को घर जाकर दिया जाता था। त्रेतायुग में सुपात्र को घर बुलाकर दान दिया जाता था जबकि द्वापर में याचना करने पर दान दिया जाने लगा और कलियुग में तो सेवा कराकर दान दिया जाता है। इस तरह सतयुग का दान उत्तम, त्रेतायुग का मध्यम तथा द्वापर का अधर्म का प्रतीक माना गया जबकि कलियुग में दिया गया दान तो एकदम निष्फल है।
कृते तु मानवो धर्मस्त्रेतायां गौतमः स्मृतः।
द्वापरै शंखलिखितः कलौ पाराशरः स्मृतः।।
इस तरह पाराशर ऋषि के मतानुसार मानव को हमेशा ही धर्म का पालन करना चाहिये। जहां तक हो सके कदाचार से दूर रहते हुए अपनी सामर्थ्य के अनुसार धर्म का पालन करना ही उचित है।
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यह जरूरी नहीं है कि हम दूसरों की देखादेखी धर्म के सारे कर्मकांडों का अनुसरण करने लगें क्योंकि सामर्थ्य से अधिक धर्म करना भी तामस बुद्धि का परिचायक माना गया है। धर्म का संबंध मन के भाव से है। अगर मन में शुद्धता नहीं है तो सारे कर्मकांड तथा दान व्यर्थ है। अहंकार के भाव के रहते तो ज्ञान धारण करना संभव ही नहीं है और अज्ञान तो केवल अधर्म के मार्ग पर ले जाता है। इसलिये अपने नियमित कर्मों का निर्वाह सात्विक ढंग से करने के साथ ही भगवान की भक्ति तथा सामर्थ्य के अनुसार निष्प्रयोजन दया भी करना चाहिए। लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',Gwalior
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
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Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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