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Saturday, April 23, 2011

सुख की चाहत हो दूसरे को भी प्रदान करें-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (sukh aur dukh ka fal-hindu dharmik vichar)

      जिस तरह विद्युत प्रवाह दो तारों से होता है उसी तरह हमारा जीवन भी सुख दुःख दो आधारों पर चलता है। हमारे पास जो आज चीज नयी है कल उसे पुरानी होना है। हम अच्छी चीजों का उपयोग करते हैं अंततः वह कूड़े के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। यही स्थिति हमारे कर्म की है। हम जो भी कर्म करते हैं वह फल में परिवर्तित होकर हमारे पास ही आता है। इसलिये हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हम दूसरे को प्रसन्न रखें। अपनी खुशी ही नहीं पूरे समाज की खुशी का विचार करें। कर्म और उसका फल जीवन का प्रवार बनाये रखने वाली उन दो तारों की तरह ही है जो विद्युत प्रवाह बनाये रखती हैं।
दक्ष स्मृति में कहा गया है कि
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यथैवात्मा परस्तद्वद् द्रष्टव्य सुखमिच्छाता।
सुखदु खानि तुल्यानि यथात्मीन तथा परे।।
सुखा वा यदि वा दुःखं यतिकांचित् क्रियते परे।
ततस्ततु पुनः पश्चात् सर्वमात्यनि जायति।।
‘‘इस संसार में सुख की इच्छा रखने वाले पुरुष की चाहिये कि वह दूसरे को सुख प्रदान करे क्योंकि यहां संसार में सभी सुख दुःख बराबर है। दूसरे को दिया गया सुख दुःख हमेशा ही स्वयं को प्राप्त होता है।’’
         हम एक बात ध्यान रखें कि हम जैसा व्यवहार किसी दूसरे से व्यक्ति करते हैं वह भले ही उसका तुरंत प्रतिफल न दे पर संभव है कि वह किसी अन्य व्यक्ति से प्राप्त हो। जैसे कि हमने किसी राह चलते हुए आदमी को पानी पिलाया तो यह जरूरी नहीं कि वह हमें वहीं तत्काल कुछ फल दे पर यह संभव है कि कहीं दूसरे स्थान पर हमें प्यास लगे तो कोई दूसरा व्यक्ति हमें पानी प्रदान करे। उसी तरह हम किसी कमजोर आदमी का अपमान करें और वह हमारी ताकत देखकर चुप हो जाये पर उसका परिणाम किसी अन्य व्यक्ति से हमें अन्यत्र मिल सकता है। एक जगह हमारे माध्यम से हुआ अपमान दूसरे स्थान पर हमारे सामने अपने अपमान के रूप में प्रकट हो सकता है।
         कहने का अभिप्राय यह है कि कर्मफल से बचना मुश्किल है। इसलिये जहां तक हो सके अपने कर्म सोच विचारकर पवित्रता के साथ करना चाहिए। आनंदपूर्वक जीवन जीने का यही एक मंत्र है।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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