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Thursday, April 21, 2011

सभी लोकों में सम्मान दिलाने वाला राजपद मिलना कठिन-हिन्दू धर्मिक चिंत्तन (lokpriya rajpan milna kathin-hindu dharmik chinttan)

                   अक्सर हम कोई कार्य करते हैं तो यह विचार करते हैं कि उसका परिणाम क्या होगा या लोग उस विषय पर क्या कहेंगे? ऐसी स्थिति में हम कोई नया काम प्रारंभ करने से कतराते हैं या विलंब करते हैं। दोनों ही स्थितियां अच्छी नहीं हैं। हमें यह मान लेना चाहिए कि इस संसार में सभी लोगों से प्रशंसा नहीं प्राप्त की जा सकती। राज्य प्रमुख होकर राज्य चलाना हो या मुखिया बनकर परिवार की गाड़ी, हमें कई बार अप्रिय निर्णय लेने पड़ते हैं। इसलिये अपने काम की अच्छाई बुराई विचार कर उसे प्रारंभ करने या न करने का निर्णय लेना चाहिए।
                   कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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                     दुरारोहं पदं राज्ञां सर्वलोकनमस्कृतम्।
                     अल्पेनाप्यपचारेण ब्राह्मण्मित दुर्ष्यति।।
                    ‘‘सब लोकों में सम्मान पाने वाले राजा के पद पर आरूढ् होना कठिन है, थोड़े ही दुष्कर्म से ब्राह्मणत्व दूषित हो जाता है।’’
                 प्रारब्धानि यथाशास्त्रं कार्याण्यासनबुद्धिपिः।
                 बनानीव मनोहारि प्रयच्छन्तयचिरात्फलम्।।
                    ‘‘जिस कार्य को उचित ढंग से बुद्धि के अनुकूल होकर प्रारंभ किया जाता है वह मनोहर फल के समान जल्दी परिणाम देने वाले होते हैं।
                  सार्वजनिक जीवन हो या पारिवारिक, हमें सदैव अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये सक्रिय होना चाहिए। खासतौर से सार्वजनिक कार्यों में प्रमुख की भूमिका मिलना कठिन होता है और मिल जाये तो उसका निर्वहन करना भी आसान नहीं होता। इस संसार में दुष्ट और देव दोनों ही प्रकृति के लोग रहते हैं। जब हम कोई जनहित में अभियान या कार्य प्रारंभ करते हैं तो दुष्ट प्रकृति के लोगों को असुविधा होती है। वह उसमें व्यवधान डालते हैं। वह भी नहीं कर सकते तो अच्छा काम करने वाले को स्वार्थ सिद्धि का आरोप लगाकर बदनाम करते हैं। ऐसे में जनहित के कार्य करने वालों का मन भी डांवाडोल होने लगता है।
               सच बात तो यह है कि इस संसार में सहृदय लोगों के संगठन कम बनते हैं। बनते हैं तो उनका संचालन नहीं होता। इसका कारण यह है कि सज्जन लोगों के आपसी स्वार्थ नहीं होते इसलिये वह काम सिद्धि में अपने परिवार से समय मिलने पर ही सक्रिय होते हैं। इसके विपरीत दुष्ट लोगों के संगठन अधिक ताकतवर होकर काम करते हैं क्योंकि उनके सभी सदस्य स्वार्थ होने के कारण प्राणप्रण से काम करते हैं क्योंकि उनके अर्थ की प्राप्ति होती है। यही स्थिति परिवार चलाने में भी आती है। परिवार के जिस सदस्य का मतलब नहीं सिद्ध होता वह विरोधी हो जाता है।
               अतः विरोध की परवाह किये बिना अपने कार्यों को नियम और समय के अनुसार प्रारंभ कर देना चाहिए। यह समझ लेना चाहिए कि इस संसार में कोई ऐसा पद नहीं मिलना जिससे सभी जगह लोकप्रियता मिले। बड़े पद पर बैठकर उसे निभाते हुए भी नैतिक दृढ़ता का परिचय देना चाहिए। किसी भी स्थिति में अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करना चाहिए क्योंकि एक दाग लगने पर ही व्यक्तित्व कलुषित हो जाता है।
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लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  'भारतदीप',Gwalior
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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