जिन लोगों ने कहीं भारतीय अध्यात्म से संबंधित ग्रंथों का अध्ययन कर उसके ज्ञान को रट लिया है वह जहां तहां उसका बखान करते हैं। कुछ लोग तो व्यवसायिक उद्देश्यों के साथ प्रवचन करते हैं तो कुछ ऐसे ही आपसी वार्तालाप में अपने ज्ञानी होने का दावा प्रस्तुत करते हैं। प्रवचनों से कमाने वालों की बात तो ठीक है पर जो लोग अपने सामने उपस्थित समूह को पहचाने बिना ज्ञान बघारते हैं वह अल्पज्ञानी कहलाते हैं। उनको पाखंडी भी कहा जा सकता है।
सच बात तो यह है कि ज्ञान चर्चा हमेशा ही जिज्ञासु समुदाय के बीच ही ठीक रहती है। समय और वातावरण देखकर ही सत्संग के माध्यम से ज्ञान चर्चा करना चाहिए। वरना तो सारा मनुष्य समुदाय माया में मोहित हो रहा है। सभी को हर पल अपनी स्वार्थ सिद्धि का ध्यान रहता है। लोगों के नाक, कान और आंख खुले दिखते हैं पर वह वास्तव में सक्रिय हैं इसका आभास केवल ज्ञानी लोगों को ही होता है। कुछ तो ऐसे ही मोह से ग्रसित लोग हैं जिनके लिये सत्संग एक बेकार की चीज है। अगर वह कहीं सत्संग में दिख भी जायें तो समझ लीजिये या तो समय पास करने आये हैं या फिर उनका कोई दूसरा उद्देश्य है-जैसे किसी सत्संगी को प्रभावित करना या फिर किसी से अपने स्वार्थ सिद्धि के लिये मिलना।
ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा केवल जिज्ञासु में होती है न कि मूर्खों में! मूर्ख व्यक्ति के लिये ज्ञान तो एक तरीह से विषतुल्य है। संत कबीरदास जी इस विषय में कहते हैं कि
मूरख शब्द न मानई, धर्म न सुने विचार।
सत्य शब्द नहिं खोजई, जावैं जम के द्वार।।
"मूर्ख व्यक्ति न तो शब्द ज्ञान को जानता है न ही धर्म का विचार समझता है। वह सत्य की खोज किये बिना ही यमराज के दरवाजे की तरफ बढ़ता जाता है।"
यह सामान्य मनुष्य का स्वभाव है कि वह कभी अपने परिवार, रिश्तेदार तथा मित्र समुदाय से मोह को नहीं हटा सकता। जिन लोगों को जिज्ञासा है वही सत्संग में जाते हैं। इसके अलावा भक्त लोगों के मन में ही तत्वज्ञान स्वतः प्रकट हो जाता है। ऐसे ही लोगों में सत्संग तथा ज्ञान चर्चा करना ठीक रहता है।
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संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा 'भारतदीप',GwaliorEditor and writer-Deepak Raj Kukreja 'Bharatdeep'
http://deepkraj.blogspot.com
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