आजकल हर कोई प्रशंसा का भूखा है। मुश्किल यह है कि लोग आजकल केवल धनिकों तथा उच्च पदस्थ लोगों की झूठी प्रशंसा करने के इस कदर हावी हैं कि निष्काम भाव से कार्यरत लोगों को फालतू का आदमी समझा जाता है। सज्जन आदमी की बजाय धन तथा स्वार्थ पूर्ति के लिये दुष्ट की ही प्रशंसा करते हैं। यही कारण है कि समाज में उच्छ्रंखल प्रवृत्ति के लोग मर्यादाऐं तोड़ते हुए वाहवाही बटोरते हैं। हालांकि इसके बाद में न केवल उनको बल्कि समाज को भी दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। इसलिये न तो तो उच्छ्रंखलता स्वयं बरतनी चाहिए न किसी को प्रोत्साहित करना चाहिए।
जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाहिं
गिरधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं
जो बड़ेन को लघु कहें, नहिं रहीम घटि जाहिं
गिरधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं
कविवर रहीम कहते हैं कि बड़े लोगों को कोई छोटा कहता है तो वह छोटे नहीं हो जाते। भगवान श्री कृष्ण जिन्होंने गिरधर पर्वत उठाया उनको कुछ लोग मुरलीधर भी कहते हैं पर इससे उनकी मर्यादा कम नहीं हो जाती।
जो मरजाद चली सदा, सोई तो ठहराय
जो जल उमगै पारतें, कहे रहीम बहि जाय
जो जल उमगै पारतें, कहे रहीम बहि जाय
कविवर रहीम कहते हैं कि जो सदा से मर्यादा चली आती है, वही स्थिर रहती है। जो पानी नदी के तट को पार करके जाता है वह बेकार हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-कई लोगों को तब बहुत पीड़ा होती है जब कोई उनको छोटा या महत्वहीन बताता है। सच बात तो यह है कि आजकल हर कोई एक-दूसरे को छोटा बताकर अपना महत्व साबित करना चाहता है। ऐसे में कोई व्यक्ति अगर हमको छोटा कहता है या आलोचना करता है तो उसे सहज भाव से ग्रहण करना चाहिए। अपने मन में यह सोचना चाहिए कि जो हम और हमारा कार्य है वह अपने आप हमारा महत्व साबित कर देगा। भौतिक साधनों की उपलब्धता आदमी को बड़ा नही बनाती और उनका अभाव छोटा नहीं बनाती। आजकल के युग में जिसके पास भौतिक साधनों का भंडार है लोग उसे बड़ा कहते है और जिसके पास नहीं है उसे छोटा कहते है। जबकि वास्तविकता यह है कि जो अपने चरित्र में दृढ़ रहते हुए मर्यादित जीवन व्यतीत करता है वही व्यक्ति बड़ा है। इसलिये अगर हम इस कसौटी पर अपने को खरा अनुभव करते हैं तो फिर लोगों की आलोचना को अनसुना कर देना चाहिए।
वैसे भी आजकल लोग आत्मप्रशंसा में ही अपनी प्रसन्नता समझते हैं और दूसरे के गुण देखने का न तो उनके पास समय और न ही इच्छा। इसलिये अच्छा काम करने के बाद यह अपेक्षा तो कतई नहीं करना चाहिये कि स्वार्थी, लालची और अहंकार लोग उसकी प्रशंसा करेंगे। कोई भी परोपकार और परमार्थ का काम अपने दिल की तसल्ली के लिये ही करना श्रेयस्कर है क्योंकि इससे ही हमारी आत्मा प्रसन्न होती है। अपने कर्तव्य और धर्म का एकाग्रता के साथ निर्वाह निष्काम भाव से करना ही श्रेयस्कर क्योंकि दूसरे से प्रशंसा या तो चाटुकारिता करने पर मिलती है यह उसके स्वार्थ पूरा करने पर।
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संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://deepkraj.blogspot.com
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thanks rahim ur words are fantastic
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