विरोधः कर्मणीति चैन्नानेकप्रतिपत्तेर्दर्शनात्।।
हिन्दी में भावार्थ-यदि देवताओं की पूजा, यज्ञादि कर्म में विरोध आता है तो उसे ठीक नहीं मान लेना चाहिये क्योंकि उनके द्वारा एक ही समय में अनेक रूप धारण करना संभव है-ऐसा देखा गया है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में सांस्कृतिक, सांस्कारिक, तथा सामाजिक विविधता है और यही विश्व में हमारी पहचान भी है। भगवत्स्वरूप को हर जगह विविध रूप में स्थापित किया जाता है और देवों की पूजा में भी भिन्नता दिखाई देती है। उत्तर से दक्षिण तक विवाह आदि घरेलू कार्यों के अवसर पर यह विविधता दिखाई देती है। इस विविधता को विरोध का प्रमाण नहीं समझना चाहिये।
इसके अलावा हमारे यहां, भगवान विष्णु, ब्रह्मा, तथा शिव को अपने अपने ढंग से अनेक भक्त अपना इष्ट मानते हैं। भगवान विष्णु के तो 14 अवतार माने जाते हैं। इन विविध रूपों के अनुसार भी अनेक क्षेत्रों में स्थापित प्रतिमाओं में भी विविधता देखी जाती है। इसका अन्य धर्मावलंबी मजाक बनाते हैं पर यह उनके अज्ञान का प्रमाण है। भारतीय अध्यत्मिक रहस्यों को समझे बिना भारत के ही अनेक लोग भी विपरीत टिप्पणियां करते हैं। दरअसल मुख्य विषय भक्ति है और विभिन्न स्वरूपों की प्रतिमायें पूजने का आशय आकार से निरंकार की तरफ जाना होता है। अगर हम देश की सीमाओं से उठकर देखें तो यहां से बाहर स्थापित स्वरूप भी इसी तरह विरोध भाव से परे हैं और यही कारण है कि भारतीय अध्यात्मिक पुरुषों ने कभी किसी दूसरे धर्म पर आक्षेप न कर उनको व्यापक दायरे में मान्यता दी। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञानी कभी किसी दूसरे के धर्म को निशाना नहीं बनाते।
मुख्य बात यह है कि अपने धर्म पर दृढ़ता से स्थित रहते हुए अपना कर्म करना चाहिये और जिस रूप में नारायण का मानते हैं उसका ही स्मरण करना चाहिये। चाहे कैसा भी समय हो उसके स्वरूप में बदलाव न करने में ही हितकर नहीं है-उल्टे अविश्वास, दबाव या लालच में आकर ऐसा करना भारी मानसिक कष्ट का कारण होता है।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorहिन्दी में भावार्थ-यदि देवताओं की पूजा, यज्ञादि कर्म में विरोध आता है तो उसे ठीक नहीं मान लेना चाहिये क्योंकि उनके द्वारा एक ही समय में अनेक रूप धारण करना संभव है-ऐसा देखा गया है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे देश में सांस्कृतिक, सांस्कारिक, तथा सामाजिक विविधता है और यही विश्व में हमारी पहचान भी है। भगवत्स्वरूप को हर जगह विविध रूप में स्थापित किया जाता है और देवों की पूजा में भी भिन्नता दिखाई देती है। उत्तर से दक्षिण तक विवाह आदि घरेलू कार्यों के अवसर पर यह विविधता दिखाई देती है। इस विविधता को विरोध का प्रमाण नहीं समझना चाहिये।
इसके अलावा हमारे यहां, भगवान विष्णु, ब्रह्मा, तथा शिव को अपने अपने ढंग से अनेक भक्त अपना इष्ट मानते हैं। भगवान विष्णु के तो 14 अवतार माने जाते हैं। इन विविध रूपों के अनुसार भी अनेक क्षेत्रों में स्थापित प्रतिमाओं में भी विविधता देखी जाती है। इसका अन्य धर्मावलंबी मजाक बनाते हैं पर यह उनके अज्ञान का प्रमाण है। भारतीय अध्यत्मिक रहस्यों को समझे बिना भारत के ही अनेक लोग भी विपरीत टिप्पणियां करते हैं। दरअसल मुख्य विषय भक्ति है और विभिन्न स्वरूपों की प्रतिमायें पूजने का आशय आकार से निरंकार की तरफ जाना होता है। अगर हम देश की सीमाओं से उठकर देखें तो यहां से बाहर स्थापित स्वरूप भी इसी तरह विरोध भाव से परे हैं और यही कारण है कि भारतीय अध्यात्मिक पुरुषों ने कभी किसी दूसरे धर्म पर आक्षेप न कर उनको व्यापक दायरे में मान्यता दी। भारतीय अध्यात्मिक ज्ञानी कभी किसी दूसरे के धर्म को निशाना नहीं बनाते।
मुख्य बात यह है कि अपने धर्म पर दृढ़ता से स्थित रहते हुए अपना कर्म करना चाहिये और जिस रूप में नारायण का मानते हैं उसका ही स्मरण करना चाहिये। चाहे कैसा भी समय हो उसके स्वरूप में बदलाव न करने में ही हितकर नहीं है-उल्टे अविश्वास, दबाव या लालच में आकर ऐसा करना भारी मानसिक कष्ट का कारण होता है।
http://deepkraj.blogspot.com
-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन
No comments:
Post a Comment