समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढ़ें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका


हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर

Sunday, February 28, 2010

भर्तृहरि शतक-इंसान के मन में भय तो बना ही रहता है (hindu dharma sandesh-insan aur bhay(

भर्तृहरि महाराज के अनुसार
---------------
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाः भयम्।।
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्नताद् भयं सर्व वस्तु भ्वान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
इस संसार में हर मनुष्य को भय लगा ही रहता है। सांसरिक पर्दार्थों का उपभोग से रोग का भय, ऊंचे कुल में जन्म लेने पर निम्न कोटि के कर्म में फंसने का भय, अधिक धन से राज्य का भय, एकदम शांत रहने से दीनता का भय, शक्तिशाली होने पर शत्रु का भय, सौंदर्य के साथ बुढ़ापे का भय, विद्वान होने पर वाद विवाद में पराजय का भय, विनम्रता दिखाने पर दुष्टों द्वारा निंदा करने का भय और शरीर होने पर यमराज का भय रहता है
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब मन में कामनायें होती हैं तो उनकी पूर्ति के लिये मन में अनेक प्रकार के विचार भी आते है, जिनसे प्रेरित होकर हम अपने कर्म को संपन्न करने लगते हैं। अगर सफलता मिल गयी तो ठीक नहीं तो निराशा हाथ लगती है। अपने कर्म के दौरान भी असफलता का भय सताता रहता है। दरअसल यह भय अहंता और ममता के भाव से ही उपजता है। इससे जो तनाव पैदा होता है वह पूरे शरीर को ही लील जाता है। इससे बचने का उपाय यही है कि कर्तापन के अहंकार से मुक्त होकर दृष्टा की तरह जीवन व्यतीत करें। यह मेरा है, वह मेरा है जैसे भाव मन में लाने पर उन वस्तुओं और व्यक्तियों से बिछोह का भय भी सताने लगता है जिनको हम अपना समझते हैं। इस नश्वर संसार में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है और यहां तक कि एक दिन हमारा आत्मा इस देह का त्याग कर चल देता है। यही आत्मा हम हैं, यह समझ कर चलना चाहिये। हम जीवन जीने नहीं देखने आये हैं यह भाव मनुष्य के अंदर दृष्टा भाव लाता है। अपने नियमित कर्म करने तो चाहिये पर उनके संपन्न होने पर ‘मैंने यह किया’, ‘मैंने वह किया’ जैसे कर्तापन के अहंकार के भाव को स्थान नहीं देना चाहिये।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://deepkraj.blogspot.com

-------------------------
यह पाठ मूल रूप से इस ब्लाग‘शब्दलेख सारथी’ पर लिखा गया है। अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द लेख पत्रिका
2.दीपक भारतदीप की अंतर्जाल पत्रिका
3.दीपक भारतदीप का चिंतन

No comments:

विशिष्ट पत्रिकायें