भर्तृहरि महाराज के अनुसार
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भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाः भयम्।।
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्नताद् भयं सर्व वस्तु भ्वान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।
हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में हर मनुष्य को भय लगा ही रहता है। सांसरिक पर्दार्थों का उपभोग से रोग का भय, ऊंचे कुल में जन्म लेने पर निम्न कोटि के कर्म में फंसने का भय, अधिक धन से राज्य का भय, एकदम शांत रहने से दीनता का भय, शक्तिशाली होने पर शत्रु का भय, सौंदर्य के साथ बुढ़ापे का भय, विद्वान होने पर वाद विवाद में पराजय का भय, विनम्रता दिखाने पर दुष्टों द्वारा निंदा करने का भय और शरीर होने पर यमराज का भय रहता है
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भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जरायाः भयम्।।
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्नताद् भयं सर्व वस्तु भ्वान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।
हिन्दी में भावार्थ-इस संसार में हर मनुष्य को भय लगा ही रहता है। सांसरिक पर्दार्थों का उपभोग से रोग का भय, ऊंचे कुल में जन्म लेने पर निम्न कोटि के कर्म में फंसने का भय, अधिक धन से राज्य का भय, एकदम शांत रहने से दीनता का भय, शक्तिशाली होने पर शत्रु का भय, सौंदर्य के साथ बुढ़ापे का भय, विद्वान होने पर वाद विवाद में पराजय का भय, विनम्रता दिखाने पर दुष्टों द्वारा निंदा करने का भय और शरीर होने पर यमराज का भय रहता है
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जब मन में कामनायें होती हैं तो उनकी पूर्ति के लिये मन में अनेक प्रकार के विचार भी आते है, जिनसे प्रेरित होकर हम अपने कर्म को संपन्न करने लगते हैं। अगर सफलता मिल गयी तो ठीक नहीं तो निराशा हाथ लगती है। अपने कर्म के दौरान भी असफलता का भय सताता रहता है। दरअसल यह भय अहंता और ममता के भाव से ही उपजता है। इससे जो तनाव पैदा होता है वह पूरे शरीर को ही लील जाता है। इससे बचने का उपाय यही है कि कर्तापन के अहंकार से मुक्त होकर दृष्टा की तरह जीवन व्यतीत करें। यह मेरा है, वह मेरा है जैसे भाव मन में लाने पर उन वस्तुओं और व्यक्तियों से बिछोह का भय भी सताने लगता है जिनको हम अपना समझते हैं। इस नश्वर संसार में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है और यहां तक कि एक दिन हमारा आत्मा इस देह का त्याग कर चल देता है। यही आत्मा हम हैं, यह समझ कर चलना चाहिये। हम जीवन जीने नहीं देखने आये हैं यह भाव मनुष्य के अंदर दृष्टा भाव लाता है। अपने नियमित कर्म करने तो चाहिये पर उनके संपन्न होने पर ‘मैंने यह किया’, ‘मैंने वह किया’ जैसे कर्तापन के अहंकार के भाव को स्थान नहीं देना चाहिये।
संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwaliorhttp://deepkraj.blogspot.com
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